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________________ ( २३ ) अर्थपूर्ण घटनायें हैं, अर्थात् वे कुछ विशेष गुण या धर्मों के संग्रह हैं और व्यक्ति, वास्तव में उन्हें इन्हीं धर्मों के रूप में जानता है।' __शीलर भी सत् की व्याख्या मानवतावादी रूप में करते हैं, जो करीब-करीव जेम्स के व्यावहारिकतावाद की विस्तृत व्याख्या मानी जा सकती है। सत् हमारी संवेदना का विषय होता है और वह हमारे मन तथा बुद्धि से संबद्ध रहकर ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट करता है। शीलर यह स्वीकर करते हैं कि सत् का ज्ञान अपनी दृष्टिभेद पर निर्भर करता है। किसी वस्तु विशेष को हम जिस दृष्टि से देखते हैं या उसका प्रत्यक्ष बोध हमें होता है, वही सत् का यथार्थ स्वरूप हमें मानना चाहिए। अतः ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सत् का सृजन स्वयं व्यक्ति अपनी रुचि और इच्छा से करता है । शीलर का कहना है-यह विश्व आवश्यक रूप से पदार्थमय है...', यह वैसा ही देखा जाता है, जैसा हम इसकी रचना करते हैं। इसकी परिभाषा इसके आरम्भिक रूप में देना, या यह हमसे अलग होकर जो है, उसके द्वारा देना निरर्थक है, वह वैसा ही है जैसा इसे हम बनाते इस प्रकार शीलर का कहना है कि सत् का निर्माता व्यक्ति स्वयं है। सत् जो प्रत्ययवादियों के लिए सनातन, पूर्ण-रचित और पूर्ण है, वह व्यावहारिकतावादियों के अनुसार अभी भी सृजन के ही प्रवृति में है और अपने स्वरूप के कुछ भाग की प्रत्याशा इसे भविष्य से है अर्थात् भविष्य में भी इसमें सूजन की संभावना है। शीलर ने अपने इस विचार को वैयक्तिक प्रत्ययवाद ( पर्सनल आइडियालिज्म) कहा है, जो निरपेक्ष प्रत्ययवाद या उग्र वस्तुवादी १. वही, पृष्ठ ३२० २ एफ० सी० एच० शीलर--'स्टडीज इन हियूमेनिज्म' ( ग्रीनयुड, १९२२), पृष्ठ ४८३ ३. 'पर्सनल आइडियलिज्म' ( आठ दार्शनिकों की सम्मिलित पुस्तक ) पृष्ठ ९० ४. आई० एम० वोचेन्सकी-'कम्टेम्पोररी यूरोपियन फिलासफी, अनु० डी० . निकोलेन एण्ड अदर्स, (यूनिवर्सिटी ऑफ केलिर्फानियाँ, लन्दन, १९५७ ), पृष्ठ ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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