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( २० ) भेद दिखाई दे सकता है। जैसे-भगवान् महावीर एक स्थान पर कहते हैं .. 'एगे आया', अर्थात् आत्मा एक है । पुनः अपने उपदेश के दूसरे क्रम में कहते हैं - -'अनेगे आया', अर्थात् आत्मा अनेक है। शाब्दिक दृष्टि से दोनों कथनों में अन्तर दिखाई देता है, परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई विरोध नहीं है। यथार्थता की दृष्टि से देखने पर आत्मा में एकत्व और अनेकत्व दोनों वर्तमान हैं । भगवतीसूत्र' में हमें इस तरह के कई उल्लेख मिलते हैं।
इस प्रकार जैन-दार्शनिक एक ही वस्तु को सापेक्ष दृष्टि से नित्य और अनित्य, एक और अनेक, अस्तित्ववान् और अनिस्तित्ववान् दोनों ही मानते हैं । मानव का वस्तु सम्बन्धी ज्ञान अपेक्षात्मक (रिलेटिव) होता है । जैन दार्शनिक इसकी व्याख्या कई अन्धे व्यक्तियों द्वारा एक ही हाथी के सम्बन्ध में विभिन्न दिये गये आंशिक ज्ञान से करते हैं। अर्थात् कोई व्यक्ति हाथी के कान को पकड़कर उसे सूप के आकार के समान मानना है तो कोई उसके पूंछ को पकड़कर रस्सी के समान । इसी प्रकार कोई उसके पैर को देख कर खम्भे के समान मानते हैं तो कोई बदन को देखकर दीवाल के समान आदि । परन्तु इन सभी अंधे व्यक्तियों द्वारा हाथी के सम्बन्ध में व्यक्त किये गये ज्ञान को आंशिक रूप से ही सत्य कहा जा सकता है। हाथी तो अपने आप में इन सभी अंगों से युक्त पूर्ण रूप से सत्य है । इस प्रकार वस्तु का ज्ञान अपेक्षात्मक रूप से होने के कारण वह' स्यात्' या' कथंचित्' रूप से ही सत्य या असत्य होता है। अतः हमें प्रत्येक कथन के पूर्व स्यात्' शब्द लगाना चाहिए। किसी वस्तु के किसी विशेष गुण को व्यक्त करने को 'नय' कहा जाता है । अर्थात् 'नय' वस्तु का आंशिक ज्ञान है। हम विभिन्न 'नयों' द्वारा ही वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उसके पूर्ण रूप में कदापि नहीं ।
पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद मूलतः एक ज्ञान मीमांसीय सिद्धान्त है । अतः जैन-दर्शन की तरह उसमें सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में अलग से व्याख्या नहीं पाते हैं। फिर भी ज्ञान मीमांसीय सिद्धान्त की व्याख्या के १. भगवतीसूत्र-१।४।४२, ७।३।२७९, आदि ।
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