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________________ ( ३३ ) साहित्य की दृष्टि से भी आश्रम व्यवस्था के चतुर्थ चरण के रूप में संन्यासाश्रम की मान्यता का पूर्ण विकास और स्थिरता धर्मसूत्रों के रचनाकाल में ही पूर्ण हुई । छठी शताब्दी ई० पू० में या उससे भी पूर्व, जैन धर्म और बौद्ध धर्म विचारधारा और जीवन-शैली की पारंपरिक वैदिक पद्धति से उदित हुए और आगे बढ़े - यह तथ्य लाक्षणिक है । यह लक्षण नवीन विचारधाराओं में भी दृष्टिगत होता है और वैदिक उपनिषदों में भी प्रतिबिंबित होता है । उपनिषदों में व्यक्त साहतिक विचारधारा, रचनात्मक बौद्धिकता और समीक्षात्मक उत्साह का प्रतिफल थी, जिसमें ब्राह्मण युग के यांत्रिक, यदा-कदा क्रूर क्रियाकांडों के विरुद्ध विद्रोह था । किन्तु विचारों की स्वतंत्रता और जिज्ञासा के भाव एक बार जाग उठे तो सुप्त होने का नाम नहीं लेते, अतः आश्चर्य नहीं कि छठीं -सातवीं शती ई० पू० में बौद्धिक गतिविधि का प्रबल अवतार हुआ जिससे स्थापित परंपराओं का विध्वंस हुआ और नये प्रयोगों से सत्य के अनुसंधान का सूत्रपात हुआ । फलस्वरूप अगणित नये दृष्टिकोणों और विचारों का उदय हुआ जिनसे अनेक मत और धर्म प्रकाश में आये | स्वतंत्र विचारों के बाहुल्य ने एक ओर तो बौद्ध, जैन, शैव, भागवत आदि धर्मों को जन्म दिया और दूसरी ओर चार्वाक् आदि पूर्व प्रचलित मान्यताओं को समृद्ध किया जिनमें धर्म के नाम पर अनैतिक क्रियाकांड चलने लगा था । 1 ऐसी स्थिति में भी बौद्ध और जैन धर्मों को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि उनमें बौद्धिक और निष्पक्ष दृष्टिकोण विद्यमान रहा और आध्यात्मिक स्वतंत्रता का पक्ष लिया गया और जिनमें जाति, धर्म और लिंग के भेद-भाव के बिना सबकी प्रवेश मिला। इन विचार - धाराओं पर आधारित होने के कारण श्रमण धर्मों ने बहुसंख्यक लोगों के, विशेषतः पूर्वी भारत में, विचारों को प्रभावित किया । भट्टाचार्य १. विस्तार के लिए द्रष्टव्य सेन, ए० है: 'स्कूल्स एण्ड सेक्ट्स इन जैन लिटरेचर', और भट्टाचार्य, एच० (रु० ) - 'द कल्चरल हैरिटेज ऑफ इण्डिया', जिल्द ४ ( कलकत्ता, १९८३), पृ० ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525002
Book TitleSramana 1990 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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