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________________ ( ३२) परिनिष्ठित वैदिक धर्म के प्राचीनतम परित्राजक थे, और उनके अनुयायी थे वैदिक ऋषि, जिनमें से अनेक गृहस्थ थे और सांसारिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ करके देव-देवियों को प्रसन्न करते थे। इससे प्रतीत होता है कि वैदिक युग में भी प्रायः भिन्न प्रकार की दो स्वतंत्र जीवन-शैलियाँ प्रचलित थीं। एक वह, जो सांसारिक उपलब्धियों के प्रचुर क्रियाकांड में लिप्त थी और दूसरी वह जो सांसारिक उपलब्धियों से परे किसी अवक्तव्य के अन्वेषण में मग्न थी। स्पष्ट है कि दूसरी जीवन-शैली बौद्धिक और आध्यात्मिक मार्ग की पक्षधर थी जिसमें स्थापित जीवन-मूल्यों की चनौती का भाव था और बहु-जन-सम्मत या शिष्ट-जन-सम्मत जीवन से सर्वथा भिन्न जीवन के माध्यम से उत्तरों की गवेषणा का प्रयास था । वैदिक धर्म में, अधिकतर, भौतिक दृष्टि से समृद्ध जीवन अभीष्ट था, जबकि श्रमण - वर्ग का उद्देश्य था- पूर्णतया आध्यात्मिक उपलब्धि । विंटरनित्ज ने इन दो विचारधाराओं को क्रमशः ब्राह्मण धर्म और श्रमण धर्म की संज्ञाएं दी हैं। पारंपरिक विचारधारा के प्रतिरोध में मुखर स्वतंत्र चिंतन का साहस हआ था--उपनिषदों में, जिनकी रचना के प्रत्यक्षदर्शी भी थे और स्वतंत्र सहयोगी भी श्रमण परंपरा के दोनों प्रतिरूप, अर्थात् बौद्ध धर्म और जैन धर्म। कुछ विद्वान् चतुर्थ आश्रम, संन्यासाश्रम, और श्रमण परंपरा की समानताओं पर बल देते हैं, किन्द यह समुचित नहीं है। द्रष्टव्य है कि चतुविध जीवन-शैली में संन्यासाश्रम एक चरण था, जिसका श्रमण परंपरा में होना आवश्यक नहीं था। श्रमण परंपरा के अनुसार भ्रमणशील साधु-जीवन में प्रवेश के लिए आश्रम-व्यवस्था के प्रथम तीन चरणों में प्रवेश अनावश्यक था। यहां तक कि वैदिक १. द्रष्टव्य, चक्रवर्ती, एस --'असेटिसिज्म इन ऐंश्यंट इण्डिया' (कलकत्ता, १९७३), पृ० ११ २. विंटरनित्ज, एस०–'हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर' ( दिल्ली, १९८१) पृ० २४६ और आगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525002
Book TitleSramana 1990 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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