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________________ जैनविद्या 25 क्षय करता है। यह ‘भगवती आराधना' की गाथा है । हिन्दी - काव्य के सर्वोत्कृष्ट रचनाकार कविवर पण्डित दौलतरामजी इसी भाव को अपनी 'छहढाला' में इसप्रकार व्यक्त करते हैं कोटि जन्म तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरें जे। ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरें ते ।। 4.5 ।। कहने की आवश्यकता नहीं है कि दोनों कथनों में अत्यधिक समानता है। इतनी अधिक कि 'छहढाला' की ये पंक्तियाँ 'भगवती आराधना' की गाथा का शब्दशः हिन्दी-अनुवाद प्रतीत होती हैं । कविवर पं. दौलतराम कृत 'छहढाला' में इस प्रकार की और भी अनेक पंक्तियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनमें 'भगवती आराधना' की गाथाओं के भाव से अत्यन्त समानता दृष्टिगोचर होती है। जैसे मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी सीत उष्णता थाय ।।1.10।। प्रथम ढाल की यह पंक्ति 'भगवती आराधना' की निम्नलिखित गाथा से लगभग पूर्णतः समानता धारण करती है - जदि कोइ मेरुमत्तं लोहुण्डं पक्खिविज्ज णिरयम्मि । उन्हे भूमिमपत्ते णिमिसेण विलेज्ज सो तत्थ ।।1558 ।। - 86 - यदि कोई देव या दानव मेरु के बराबर के लोहे के पिण्ड को उष्ण नरक में फेंके तो वह लोहपिण्ड वहाँ की भूमि तक पहुँचने के पहले मार्ग में ही नरकबिलों की उष्णता से पिघल जाये । इसी प्रकार गेही पै गृह मैं न रचै ज्यों जल तैं भिन्न कमल है। 3.15 'छहढाला' की यह पंक्ति 'भगवती आराधना' की निम्न गाथा से मिलाकर पढ़ी जा सकती है। दोनों में अद्भुत साम्य दृष्टिगोचर होता है। यथा - उदगम्मि जायवड्ढि य उदएण ण लिप्पदे जहा पउमं । तह विसएहिं म लिप्पदि साहू विसएसु उसिदो वि ।।1102 ।। जैसे कमल जल में ही उत्पन्न हुआ, जल में ही वृद्धि को प्राप्त हुआ तो भी वह जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही साधु भी सब विषयों के बीच रहते हुए भी विषयों में लिप्त नहीं होते ।
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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