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जैनविद्या 25
'छहढाला' में 'भगवती आराधना' का इतना अधिक साम्य इस बात का द्योतक है कि अवश्य ही छहढालाकार ने 'भगवती आराधना' का गहन अध्ययनमनन-कंठस्थीकरण किया होगा, उसी का प्रभाव उनकी छहढाला' पर यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है।
_ 'भगवती आराधना' का यह प्रभाव केवल पं. दौलतराम अथवा 'छहढाला' पर ही नहीं है, अपितु जैन-कवियों के समूचे ही हिन्दी-काव्य पर दृष्टिगोचर होता है। यहाँ हम इस बात को कतिपय अन्य प्रमुख कवियों के काव्य-उदाहरणों द्वारा और अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। कविवर पं. द्यानतराय 'दशलक्षणधर्म पूजा' में लिखते हैं कि -
कूरे तिया के अशुचि तन में कामरोगी रति करे।
बहु मृतक सड़हिं मसान मांहि काग ज्यों चोचें भरै।।10.5।। 'दशलक्षणधर्म पूजा' की इन पंक्तियों पर 'भगवती आराधना' की निम्नलिखित गाथा का प्रभाव स्पष्टतया देखा जा सकता है -
वग्यो सुखेज्ज मदयं अवगासेऊण जह मसाणम्मि।
तह कुणिमदेहसंफंणेण अबुहा सुखायंति।।1252।।
- जैसे श्मशान-भूमि में मृतक की देह को खाकर व्याघ्र, कूकर आदि पशु सुखी होते हैं, वैसे ही विषयों में अंधे अज्ञानी लोग अशुचि शरीर-अंग को स्पर्श कर सुख मानते हैं।
इसी प्रकार दशलक्षणधर्म की उक्त पूजा में ही शरीर की अशुचिता को दरसानेवाली निम्नलिखित पंक्तियाँ और आती हैं -
ऊपर अमल मल भर्यो भीतर कौन विधि घट शुचि कहै। बहु देह मैली सुगुन थैली शौच गुन साधु लहै।।5.7॥
इन पंक्तियों को ‘भगवती आराधना' की निम्न गाथा से मिलाकर पढ़ा जा सकता है जो इस प्रकार हैं -
विट्ठापुण्णो भिण्णो व घडो कुणिमं समंतदो गलइ।
पूदिंगालो किमिणोव वणो पूदिं च वादि सदा।।1037।। ___- जैसे विष्ठा से भरे घड़े के फूटते ही सब ओर मल फैल जाता है, दुर्गन्ध फैल जाती है, यह शरीर भी विष्ठा से भरे घड़े के समान है, इससे निरन्तर