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________________ जैनविद्या 25 एकान्तवास करता है; पर्वत, गुहा या वृक्ष के नीचे रुकता है; उसी के निमित्त निर्मित भवनों में नहीं रुकता, क्षितिशयन करता है, या पाषाण या काष्ठफलक पर सोता है, दिन में एक बार भोजन ग्रहण करता है, वह भी ऊनोदर (प्र.सा. 29.18-19)। श्रवणबेलगोल के इतिहास में तीन प्रकार के मुनि मिलते हैं - 1. निर्ग्रन्थ, 2. सवस्त्र भट्टारक, और 3. गणगच्छ। आचार्य जो संघ के प्रशासन में जुटे रहते हैं और निर्ग्रन्थ रहते थे। श्रुतमुनि दिगम्बर मुद्रा में थे और मयूरपिच्छ रखते थे। कुछ साधु गृद्धपिच्छ और बलाक पिच्छ भी रखा करते थे। कुन्दकुन्दाचार्य को वहाँ गृद्धपिच्छाचार्य कहा जाता है। 2. द्वितीय चरण - इसके बाद सल्लेखना धारण करनेवाला साधक अपने शरीर को अशुचि और भारभूत मानता है और उसे छोड़ने का निश्चय कर लेता है। सल्लेखनाधारी साधकों के मूलतः दो वर्ग होते हैं - आचार्य और साधु। सल्लेखना अधिक से अधिक बारह वर्ष की होती है जिसमें क्रम से शारीरिक ममता को तिलांजलि देते रहना पड़ता है। सल्लेखना लेने पर आचार्य को इन दश तत्त्वों का पालन करना पड़ता है (गाथा 298-385)। (1) दिसा - आचार्य समस्त संघ को बुलाकर बालाचार्य की नियुक्ति करता है और गण की बागडोर उसे सौंप देता है ताकि साधना में कोई व्यवधान न आये (274-7)। (2) क्षमा ग्रहण - साधक संघ से क्षमायाचना करता है और संघ भी उससे क्षमा भाव की प्रार्थना करता है (279-80)। (3) अनुशासन - आचार्य फिर संघ के नवनियुक्त आचार्य को उपदेश देता है। भगवती आराधना में यह उपदेश लगभग 88 गाथाओं में दिया गया है जिसका सारांश यह है - शीलगुणों का पालन करना, निरतिचारपूर्वक रत्नत्रय का पालन करना, आहार, उपकरण और वसति का शोधन करना, संयमी रहना, दुःसह परीषहों को सहना, वैयावृत्य करना, पार्श्वस्थ साधुओं की संगति नहीं करना, आवश्यक कर्म करना (गाथा 281-385)। (4) परगण-गमन - अनुशासन देकर आचार्य साधक अपना गण छोड़कर दूसरे गण में जाने का विचार करता है। भगवती आराधना में अपने गण में रहने
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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