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________________ जैनविद्या 25 ने भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में “उपसर्गेदुर्भिक्षे...” आदि कहकर इसी विचार का समर्थन किया है (पद्य 112)। श्रवणबेलगोल में इन्हीं परिस्थितियों में वृषभनन्दि, शशिमति, महादेव, विनयदेवसेन (7वीं शती), मेघचन्द्रदेव, देमियक्का आदि संतों ने 'भक्त प्रत्याख्यान मरण' का वरण किया था (Ec || 85, 86, 156 आदि)। इसी तरह अक्षयकीर्ति मुनि, बालचन्द्र, श्रितमुनि, नन्दिसेन के उदाहरण भी प्राप्त हैं। मुनि या श्रावक कोई भी साधक इस मरण को स्वीकार कर सकता है (गाथा 73)। इसे हम तीन चरणों में विभाजित कर सकते हैं - ___1. प्रथम चरण - यहाँ आचार्यों ने भक्त प्रत्याख्यान ग्रहण करनेवाले साधक की योग्यता पर विचार किया है। साधक को अपरिग्रही और अचेलक अवस्था ग्रहण करनी पड़ती है (औत्सर्गिक लिंग)। इसमें केशलुंचन, शरीर से ममत्व त्याग और प्रतिलेखन भी होता है। श्रावक अवस्था में सवस्त्र लिंग अवस्था भी हो सकती है। स्त्रियों को अल्पपरिग्रही रखा जाना चाहिए (गाथा 80)। यहाँ लिंग ग्रहण के लाभों का परिगणन किया गया है, अचेलकता का भी (8185)। केशलुंचन, मयूरपिच्छ-धारण आदि गुणों का यहाँ आलेखन मिलता है (8697)। इस अवस्था में निर्ममत्व में सघनता लाने के लिए साधक श्रुताध्ययन, स्वाध्याय (98-110), विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचार, समाधि, अनियतवास, ध्यान, उपाधित्याग, श्रुति (संयम), भावना, सल्लेखना आदि धारण करता है (76-272)। भगवती आराधना में विस्तार से इन सभी बिन्दुओं पर विचार किया गया है और कहा गया है कि सल्लेखनाधारी अपरिग्रही साधु इस प्रक्रिया से राग-द्वेष को जीत लेते हैं (266-272)। यहाँ गाथा 251 में भिक्षुप्रतिमाओं का निर्देश हुआ है। मूलाचार में इसका कथन नहीं है। मूलाचार (1.2-3), प्रवचनसार (तृतीय अध्याय), सुत्तपाहुड (10.21), बोधपाहुड (51-57), भावपाहुड (54-55) में भी अचेलकता को विस्तार मिला है। अचेलकता की सभी ग्रंथों में प्रशंसा की गई है (मूला. 28-30, 650-652, आचारांग 16.3)। भावपाहुड में कहा है कि साधक जब तक अन्तरंग से निरासक्त होकर अचेलक नहीं होता है, वह सही साधना नहीं कर पाता (54, 55, 73)। अचेलकता या जिनमुद्रा धारण करने के भी कतिपय नियम हैं। साधक का शरीर निर्दोष हो, चारित्र निर्मल हो और मन अपराधशून्य हो (प्र. सा. 92)। महिला वर्ग को शारीरिक और मानसिक कारणों से जिनमुद्रा ग्रहण करने की अनुमति जैन परम्परा में नहीं दी गई (सुत्तपाहुड, 22-25)। अचेलक साधु पाणिपात्री होता है। अनियतवास या पैदल भ्रमण-यात्रा में वह अनपेक्षित व्यक्तियों से नहीं मिलता,
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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