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________________ जैनविद्या 25 37 सामग्री व व्यवस्था प्राप्त होती है। मुनि-आचारपरक यह ग्रंथ मरण के भेदों-प्रभेदों से पूरित है। 'समाधिमरण' अपरनाम 'सल्लेखना' जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जैनधर्म ने अध्यात्म के क्षेत्र में मृत्यु को 'महोत्सव' का स्वरूप प्रदान करने की जो प्रक्रिया प्रस्तुत की उसे 'सल्लेखना', 'समाधिमरण', 'संन्यासमरण', 'वीरमरण', ‘पण्डितमरण', 'संथारा' आदि नामों से अभिहित किया गया है। कोई भी मनुष्य अपने सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा जीवन और मृत्यु को सार्थक बना सकता है। सम्यकपूर्वक काय और कषाय को कृश करना सल्लेखना है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार - उपसर्गे दुर्भिक्षेजरसिरुजायां च निःप्रतिकारे। धर्माय तनु विमोचनमाहः सल्लेखनामार्याः।।122।। रत्न.क. - जिसके निवारण का कोई उपाय न हो ऐसे उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धापना, असाध्यरोग की स्थिति में जीवन-धर्म की रक्षा के लिए शरीर का विधिपूर्वक त्याग करना समाधिमरण या सल्लेखना है। दो हजार वर्ष पूर्व शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार्य शिवार्य कृत 'भगवती आराधना' नामक श्रमणाचार विषयक वृहद् ग्रन्थ मुख्यतः समाधिमरण विषय का सांगोपांग विवेचन करनेवाला ग्रन्थराज है। मरणसमय में शरीर और रागादि दोषों को कृश करना समाधिमरण है। आचार्य शिवार्य मृत्यु के समय सल्लेखना धारण पर बल देते हए कहते हैं - एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो। ण ह सो हिंडदि बहसो सत्तट्ट भवे पमोत्तूण।।688।। '- अर्थात् जो भद्रजीव एक पर्याय में समाधिमरणपूर्वक मरण करता है, वह संसार में सात-आठ पर्याय से अधिक परिभ्रमण नहीं करता। सल्लेखना और सल्लेखना-धारक का महत्त्व बताते हुए आचार्य शिवार्य लिखते सल्लेहणाए मूलं जो वच्चइ तिव्व भत्तिराएण। भोत्तूण · य देवसुहं सो पावदि उत्तमं ठाणं।।687।। - सल्लेखनाधारक क्षपक का भक्तिपूर्वक दर्शन, वन्दन और वैयावृत्य आदि करनेवाला व्यक्ति भी देवगति के सुखों को भोगकर अन्त में उत्तमस्थान (निर्वाण) को पाता है।
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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