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________________ जैनविद्या 25 कोई दोष प्रवेश कर तिरस्कार नहीं कर पाता। जो अपने और पर के भेदविज्ञान से रहित है और पर्याय में ही अंधा हो रहा है वह पुरुष दोषरूपी शत्रु को ग्रहण करता है। भेद - विज्ञान से दोष ग्रहण नहीं होते । सम्यक्त्व को धारण करनेवाला पुरुष परिषह की उदारणा को करता हुआ भेदविज्ञान का स्मरण रहता है। इन भावों की आराधना भगवान ने कही है। इस प्रकार दश गाथाओं ( 1843 - 1852 ) में संवर भावना का वर्णन किया। 10. निर्जरा भावना ऐसे मुनिराज जिनके कर्मों का आस्रव संवर के कारण रुक गया है वे जैनशास्त्रों में वर्णित नाना प्रकार के तप को धारण करते हैं। तपश्चरण बिना संवरमात्र से कर्म का छूटना सम्भव नहीं है। 30 एक पूर्व काल में बँधे कर्म का छूटना निर्जरा है । निर्जरा दो प्रकार की है उदय काल में अपना रस लेकर झड़ना सो सविपाक निर्जरा है और दूसरी उदय काल बिना तपश्चरणादिक के प्रभाव से, बिना रस दिये कर्मों का झड़ना, वह अविपाक निर्जरा है। समस्त ही उदय को प्राप्त हुए कर्मों की निर्जरा होती है। जो उदय में आकर समय-समय अपना रस देगा उस अनुसार समय-समय कर्म की निर्जरा होगी। और तप करके भी समस्त कर्म की निर्जरा होती है। फल दिये बिना किसी भी कर्म का छूटना संभव नहीं होता । अपना फल देकर खिरे वह सविपाक निर्जरा और जो तप करके तपाया गया कर्म अपना रस दिये बिना निर्जरे वह अविपाक निर्जरा है। जैसे अग्नि स्वयं प्रज्वलित होकर बहुत तृण की राशि को जलाती है, उसी प्रकार तपरूप अग्नि बहुत कर्मरूप तृण का विध्वंस करती है। - - दर्शन- -ज्ञान - चारित्रसहित तप करने से समस्त कर्म के रस का शोषण हो जाता है। कर्म की स्थिति घट जाती है और अनुभाग का अभाव हो जाता है। चिकनाईरहित कर्म - - धूल के समान खिरकर बिखर जाते हैं। सम्यक तप के प्रभाव से कर्म का रस सूखकर कर्म-परमाणु आत्मा से झड़ जाते हैं। जिस प्रकार पाषाण में मिला स्वर्ग महान अग्नि में तपाये जाने पर शुद्ध होता है उसी प्रकार कर्म धातु में मिला हुआ जीव महान तपरूप अग्नि में तपाने पर शुद्ध होता है। संवरपूर्वक ताप ही मोक्ष का कारण है, संवर प्रयोजनवान है । जिनेन्द्र भगवान ने परमागम में कहा है - संवररहित पुरुष को तप करने मात्र से मोक्ष नहीं होता। संवर सहित तपश्चरण करके ही मोक्ष होता है। जो संवररूप बख्तर पहनकर सम्यक्त्वरूप वाहन (रथ) पर चढ़ा है और श्रुतज्ञानरूप महान धनुष
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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