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________________ जैनविद्या 25 29 रागभाव लुभाने में प्रबल होता है तथा दोष की प्रबलता से निकट का भाई-बान्धव क्षण मात्र में द्वेषी हो जाता है। इस प्रकार राग-द्वेष विपरीत मार्ग में प्रवर्तन कराते हैं। ____ गारव, इन्द्रिय, संज्ञा, मद, राग, द्वेष आदि पाप की प्रवृत्ति धिक्कार है जिनके कारण सम्यग्दृष्टि जीवों को भी दोष लग जाता है। गौरव तीन प्रकार का है - ऋद्धिगारव, रसगारव और सातगारव। ऋद्धि-सम्पदा का अभिमान ऋद्धिगारव है, षटरस भोजन का अभिमान रसगारव और सातावेदनीय के उदय का अभिमान सातगारव है। इन्द्रिय-विषयों की लंपटता, भोजन, मैथुन और परिग्रह की अभिलाषा तथा रक्षा का भय, ये चार संज्ञाएँ हैं। आठ मद हैं। पंचेन्द्रिय के विषयों की अभिलाषा से सुख नहीं किन्तु कर्म-बन्ध होता है और निर्वाण का नाश होता है। यह धर्म को त्याग कर भोगों की अभिलाषा करने जैसा है। जैसे कोई पुण्यहीन अमृत त्याग कर विष पीता है, वैसे ही मूढजन मनुष्य भव में धर्म को छोड़ भोगों की इच्छा करता है। पापमय मन-वच-काय के योग से कर्म का आस्रव होता है। अनुकम्पा-जीवदया और शुभोगयोग ये पुण्य आने के द्वार हैं। जीवों के प्रति निर्दयता और अशुभोगयोग ये पापकर्म के द्वार हैं। शुभयोग से पुण्यास्रव और अशुभयोग से पापास्रव होता है। इस प्रकार चौदह गाथाओं (1828-1842) में आस्रव भावना का वर्णन किया। 9. संवर भावना मिथ्यात्व और अव्रत द्वार से जो कर्म आते हैं उनका सम्वर क्रमशः सम्यक्त्व रूप दृढ़ कपाट और दृढ़ व्रत रूप आगल से मिथ्यात्व और हिंसादिक रोकने से होता है। कषायों के उपशम, जीव दया और इन्द्रिय दमन ऐसे आयुध हैं जिनसे कषाय चोरों से रक्षा की जाती है। जिस प्रकार उत्पथमार्गी घोड़ों को लगाम लगाकर नियंत्रित किया जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियों को विषयों से रोककर नियंत्रित करना चाहिए। जिस प्रकार विद्या-मंत्ररहित पुरुष आसीविष जाति के सर्प का निग्रह नहीं कर पाता। उसी प्रकार मन को एकाग्र नहीं करनेवाला चपल-चित्तधारक पुरुष इन्द्रियरूपी सर्प को वश में नहीं कर पाता। प्रमाद के विकथादि पंद्रह पाप द्वार हैं, यथा - विकथा 4, कषाय 4, इन्द्रिय 5, निद्रा 1 और स्नेह 1। अपने स्वरूप की निरंतर सावधानी रखने पर प्रमाद नहीं होता। जिस प्रकार खाई-कोट आदि से शत्रुओं की सेना से नगर की रक्षा होती है, उसी प्रकार मन-वच-काय की गुप्तिरूप खाईकोट से संयमरूप नगर की कर्मरूपी वैरी की सेना से रक्षा होती है। प्रमादरहित पुरुष समितिरूप दृढ़ नाव में बैठकर छहकाय के जीवों की रक्षा करते हुए संसार-समुद्र से तिरते हैं। वस्तु के स्वरूप का सत्यार्थ रूप में स्मरण करनेवाले पुरुष के अन्तरंग में
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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