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________________ जैनविद्या 25 गाथाओं का नियोजन किया है। आशाधर ने अपने 'मूलाराधना दर्पण' को आठ आश्वासों में विभक्त किया है, पर मूल ग्रन्थ में ऐसा कोई विभाजन नहीं है। भगवती आराधना की टीकाएँ भगवती आराधना की लोकप्रियता उसकी टीकाओं से आँकी जा सकती है। अवन्ती सुकुमाल, चाणक्क, चिलादपुत्त, सुकोशल आदि में इसकी अनेक गाथाएँ यथावत् मिलती हैं। उपलब्ध टीकाओं का विवरण इस प्रकार है - __ 1. विजयोदया टीका - यह एक विस्तृत संस्कृत टीका है जिसमें साधुओं की आचार-प्रक्रिया का विस्तार से व्याख्यान किया गया है और अपने कथन को संस्कृत-प्राकृत के उद्धरणों से पुष्ट किया गया है। अपराजित सूरि अथवा श्रीविजय-कृत यह टीका कदाचित् प्राचीनतम टीका है। टीकाकार ने अपनी टीका में जिन पाठान्तरों का उपयोग किया है वे भाषाविज्ञान की दृष्टि से अधिक प्राचीन कहे जा सकते हैं। हमने उसी का अनुसरण करने का प्रयत्न किया है। 'दशवैकालिकसूत्र' पर भी इन्होंने टीका लिखी थी। प्रशस्ति के अनुसार अपराजित सूरि बलदेव सूरि के शिष्य और महाकर्म प्रकृत्याचार्य तथा बलदेव सूरि के प्रशिष्य थे। ये आरातीय साधुओं के प्रमुख थे। आचार्य नागनन्दी की प्रेरणा से इन्होंने यह टीका लिखी थी। पं. आशाधर के पूर्ववर्ती विद्वान के रूप में इनका स्मरण किया जा सकता है जिन्होंने अपनी अनागार धर्मामृत टीका (सं.1300-57=) 1243 ई. में पूरी की थी। इस टीका में अपराजित सूरि का अनेक बार उल्लेख हुआ है। अपराजित सूरि आचारांग, सूत्रकृतांग, कल्पसूत्र दशवैकालिक आदि प्राचीन ग्रन्थों से भलीभाँति परिचित थे। इसी के साथ ही इन्होंने कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, पूज्यपाद और जटासिंहनन्दि के ग्रन्थों को भी उद्धृत किया है। अतः आचार्य अपराजितसूरि का समय 8वीं से 10वीं शती के बीच होना चाहिए। ये कदाचित् यापनीय संघ के आचार्य थे। यह उल्लेखनीय है कि इनकी इस टीका में 'आचेलक्य कल्प' का वर्णन है और 'वस्त्रपात्रवाद' की समीक्षा भी। जिनकल्प का उच्छेद हुआ इसे टीकाकार ने स्वीकार नहीं किया। 2. दूसरी टीका आशाधर-कृत 'मूलाराधना दर्पण' है। इन्होंने अपराजित सूरि का अनुकरण इस टीका में किया है और इसे 'श्रीविजय' के नाम से उद्धृत किया है। इन्होंने 'टीकाकारौ व्याचक्रतुः' कहकर यह भी संकेत किया है कि
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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