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________________ जैनविद्या 24 क्योंकि यह धुआँ के सद्भाव के साथ ही साथ उसके अभाव में भी उपलब्ध होती है। इसप्रकार व्याप्ति सम्बन्ध दो वस्तुओं में सार्वभौमिक और त्रैकालिक रूप से विद्यामान व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है । जो व्यक्ति इस सम्बन्ध को जानता है वही व्याप्य का प्रत्यक्ष होने पर उसे हेतु बनाता है तथा व्यापक को साध्य बनाकर उसका अनुमान ज्ञान प्राप्त करता है। जैन आचार्यों के अनुसार इस व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान तर्क प्रमाण से होता है। 2 70 व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान का साधन-तर्क प्रमाण तर्क प्रमाण व्याप्ति सम्बन्ध को जानने की सक्रिय, विचारात्मक और अन्वेषणात्मक प्रक्रिया है। आचार्य प्रभाचन्द्र इस प्रक्रिया को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि साधन के होने पर साध्य के भी विद्यमान होने ( अन्वय) और साधन का अभाव होने पर साध्य के भी नहीं होने (व्यतिरेक) के अनेक दृष्टान्तों के प्रत्यक्षपूर्वक घटित होनेवाली विचारात्मक प्रक्रिया तर्क प्रमाण कहलाती है। व्यक्ति साधन और साध्य के अनेक अन्वयव्यतिरेकी दृष्टान्तों के प्रत्यक्ष, पूर्वदृष्ट दृष्टान्तों के स्मरण तथा वर्तमान प्रत्यक्ष तथा पूर्वदृष्ट दृष्टान्तों में विद्यमान सादृश्य और विलक्षणता के प्रत्यभिज्ञानपूर्वक साधन और साध्य में विद्यमान व्याप्ति सम्बन्ध को जानता है । उदाहरण के लिए - जब कोई व्यक्ति किसी स्थान पर धुआँ उठती हुई देखता है तो उसे यह जिज्ञासा होती है कि इस धुआँ का कारण क्या है ? इस जिज्ञासा की शान्ति हेतु ध्यान से देखने पर उसे वहाँ कोई वस्तु जलती हुई दृष्टिगोचर होती है। कुछ देर बाद वह देखता है कि अब उस वस्तु का जलना बन्द हो गया तो अब वहाँ धुआँ भी नहीं उठ रही । भविष्य में उसे पुनः-पुनः धुआँ का सद्भाव होने पर आग के भी होने और आग के नहीं होने पर धुआँ के भी नहीं होने के अनेक दृष्टान्तों का प्रत्यक्ष होता है। साथ ही वह यह भी देखता है कि धुआँ तो सदैव आग के साथ ही प्राप्त हुई है लेकिन आग धुआँ के सद्भाव के साथ ही साथ उसके अभाव में भी प्राप्त हो जाती है। अपने इन विभिन्न अनुभवों में विद्यमान समानता और विलक्षणता पर विचार करते हुए व्यक्ति धुआँ और आग के मध्य व्याप्ति सम्बन्ध का निश्चय करता है । उसका यह निश्चय तर्क प्रमाण कहलाता है। दो वस्तुओं के अनेक अन्वयव्यतिरेकी दृष्टान्तों का प्रत्यक्ष व्याप्ति सम्बन्ध के निश्चय की प्रक्रिया का प्रथम चरण है तथा इस प्रत्यक्ष का विकास अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से होता है । प्रायः एक सामान्य व्यक्ति का प्रत्यक्ष अवग्रह तक ही
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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