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________________ जैनविद्या 24 आगम - आप्त-वचन को आगम कहते हैं। जिसके आधार पर वस्तु-तत्त्व का बोध किया जाता है। आप्त द्वारा कथित वचन से पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसमें किसी तरह का विरोध नहीं होता। ज्ञान आगम है जो पूर्ण कहलाता है। सर्वज्ञ के वचन प्रमाणिक होते हैं। इसी दृष्टि को लेकर प्रभाचन्द्र ने मात्र 'ज्ञान' को प्रमाण नहीं कहा अपितु 'सर्वज्ञ के ज्ञान' को प्रमाण कहा है।25 आगम द्वारा बौद्ध विचार, वेदविचार, स्मृति, पुराण, मीमांसा कथन आदि के प्रमाणों को रखकर आप्तवचन को प्रमाण मानकर उसकी विस्तार से शुद्धि की है। उसमें भी पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष दोनों ही तरह की दृष्टियाँ हैं। ___ प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रमाण का विषय मुख्य है। इसमें प्रमेयों को जाननेवाले अन्य दार्शनिकों के विचारों का विवेचन भी है। उनके पक्ष को सामने रखकर विषय का वर्णन किया गया है। 1. न्यायभाष्य, 1.1.1 2. स्वयंभू स्तोत्र, श्लोक सं. 102 3. अनुयोगद्वार, गाथा 2 4. प्रमाणवार्तिक, श्लोक 3 5. न्यायवार्तिक, 3-4 6. जैन न्याय का विकास, पृ. 82 7. जैन महेन्द्रकुमार, प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रस्तावना, पृ. 5 8. प्रमेयकमलमार्तण्ड, 1.1 9. परीक्षामुख, 1.1 10. प्रमाणनयतत्वालोक 1.2 11. तत्वार्थश्लोक वार्तिक, 1.10.17 12. प्रमाणमीमांसा, सूत्र 2 13. स्वार्थसिद्धि, 1,6-7 14. प्रमेयकमलमार्तण्ड, 3.1 15. वही, 3.2 16. वही, 2.5 17. वही, 3.2.4
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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