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________________ जैनविद्या 24 कहते हैं। यह नियम सहचारी ( साथ रहनेवाला) और व्याप्य - व्यापक पदार्थों में पाया जात है, 72 जैसे - नीबू, आम आदि पदार्थों में रूप और रस सहचारी है; क्योंकि इन पदार्थों में 'रूप' रस को छोड़कर या 'रस' रूप को छोड़कर नहीं पाये जाते हैं; बल्कि दोनों साथ-साथ रहते हैं। इसी प्रकार शिंशपात्व और वृक्षत्व व्याप्य - व्यापक पदार्थ हैं। इनमें से 'शिंशपात्व' वृक्षत्व को छोड़कर कहीं नहीं पाया जाता, शिंशपात्व जब भी और जहाँ भी पाया जाता है वृक्षत्व के साथ ही पाया जाता है। इस प्रकार सहचारी और व्याप्य-व्यापक पदार्थों में सहभाव नियम अर्थात् सहभाव रूप अविनाभाव सम्बन्ध पाया जाता है। 98 काल के भेद से क्रमपूर्वक होनेवाले साध्य - साधन के सम्बन्ध को 'क्रमभाव नियम' कहते हैं, यह नियम पूर्वचर - उत्तरचर में और कारण -कार्य में पाया जाता है, जैसे कृत्तिका नक्षत्र का उदय और रोहिणी नक्षत्र का उदय पूर्वचर - उत्तरचर है, क्योंकि कृत्तिका नक्षत्र का उदय रोहिणी नक्षत्र के उदय से एक मुहूर्त्त पहले होता है और रोहिणी नक्षत्र का उदय कृत्तिका नक्षत्र के उदय से एक मुहूर्त्त पीछे होता है। इसी प्रकार अग्नि की सत्ता धूम की सत्ता से पहले है । अतः पूर्वचर - उत्तरचर और कारण -कार्य में क्रमभाव नियम अर्थात् क्रमभाव रूप अविनाभाव सम्बन्ध पाया जाता है। 1.4.2. अविनाभाव का निश्चय ( ग्रहण ) अविनाभाव अथवा व्याप्ति के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि अविनाभाव या व्याप्ति का ज्ञान कैसे होता है, अर्थात् अविनाभाव के निश्चय अथवा ग्रहण का साधन क्या है? प्रत्युत्तर में, माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र के अनुसार अविनाभाव . सम्बन्ध का निर्णय 'तर्क' प्रमाण से होता है, जैसा कि माणिक्यनन्दि ने 'परीक्षामुख' (3.15/3.19 ) में लिखा है - - “तर्कात्तन्निर्णयः " और तर्क के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है - “उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः, इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च यथाग्नावेव धूमस्तदयावे न भवत्येवेति च ।” ( परीक्षामुख, 3.7-9 से अथवा 3.11 - 13 ) अर्थात् उपलम्भ (साध्य के होने पर ही साधन का होना) (अन्वय) और अनुपलम्भ ( साध्य के नहीं होने पर साधन का नहीं होना ), ( व्यतिरेक) के निमित्त से जो व्याप्ति का ज्ञान होता है उसे 'ऊह' अर्थात् 'तर्क' कहते हैं, जैसे यह साधन रूप वस्तु इस -
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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