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________________ जैनविद्या 24 97 प्रतिवादी के द्वारा बिना विवाद के साध्य और साधन दोनों को अन्वय रूप से अथवा व्यतिरेक रूप से दिखाया जाए उसे 'उदाहरण' या 'दृष्टान्त' कहते हैं। उदाहरण या दृष्टान्त दो प्रकार का है - (क) अन्वय दृष्टान्त और (ख) व्यतिरेक दृष्टान्त - दृष्टान्तो द्वेधा अन्वयव्यतिरेकभेदात् । (परीक्षामुख, 3.44) (i) अन्वय दृष्टान्त - जहाँ पर साध्य से व्याप्त साधन को अर्थात् साध्य के साथ निश्चय से व्याप्ति रखनेवाले साधन को दिखाया जाए उसे 'अन्वय दृष्टान्त' कहते हैं,70 जैसे - जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, उदाहरण के रूप में रसोईघर । (ii) व्यतिरेक दृष्टान्त - जहाँ पर साध्य के अभाव में साधन का अभाव दिखलाया जाए उसे 'व्यतिरेक दृष्टान्त' कहते हैं, जैसे - जहाँ अग्नि नहीं होती है वहाँ धूम भी नहीं होता है यथा जलाशय। 'उपनय' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए परीक्षामुख (3.46) में लिखा है "हेतोरुपसंहार उपनयः" अर्थात् हेतु के उपसंहार को 'उपनय' कहते हैं। अन्य शब्दों में, हेतु का पक्षधर्म रूप से दुहराना उपनय है, जैसे - उसी प्रकार यह भी धूमवाला है। और, प्रतिज्ञा के उपसंहार को 'निगमन' कहते हैं - “प्रतिज्ञायास्तु निगमनम्” (परीक्षामुख, 3.47) अर्थात् प्रतिज्ञा का दुहराना निगमन है, जैसे ‘अतः यह अग्निवाला है'। 1.4. अविनाभाव (व्याप्ति) 1.4.1. अविनाभाव का स्वरूप ऊपर हमने अनुमान के घटकों, विशेषतः साधन और साध्य के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए देखा कि साधन/हेतु का प्रधान लक्षण अविनाभावित्व है और साध्य तथा साधन के सम्बन्ध को अविनाभाव कहते हैं। किन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि इस सम्बन्ध में अविनाभाव का स्वरूप क्या है? प्रत्युत्तर में, माणिक्यनन्दि ने अविनाभाव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है - “सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः।" 3.12 (3.16) अर्थात् सहभाव नियम और क्रमभाव नियम अविनाभाव है। ध्यातव्य है - सहभाव नियम और क्रमभाव नियम अविनाभाव का स्वरूप भी है और अविनाभाव के भेद भी। युगपत् अर्थात् एकसाथ रहनेवाले साध्य और साधन के सम्बन्ध को ‘सहभाव नियम'
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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