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________________ जैनविद्या 24 साध्य होता है। और ‘असिद्ध' विशेषण प्रतिवादी की अपेक्षा से प्रयुक्त हुआ है,49 क्योंकि प्रतिवादी को साध्य का स्वरूप ज्ञात नहीं होता है। ___ ध्यातव्य है, सामान्यतः 'धर्म' - धर्मी अथवा पक्ष का साध्य रूप विशेषण - को ही साध्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। किन्तु माणिक्यनन्दी और प्रभाचन्द्र के अनुसार कहीं पर 'धर्म' साध्य होता है और कहीं पर 'धर्म-विशिष्ट धर्मी' 15° उनके अनुसार 'व्याप्ति-काल' में 'धर्म', जैसे अग्नि, ही साध्य होता है; क्योंकि उसके साथ ही हेतु की व्याप्ति संभव है। और 'प्रयोग-काल'52 में 'धर्म विशिष्ट धर्मी' - जैसे अग्नि रूप धर्म से विशिष्ट/विशेषित पर्वत - साध्य होता है; क्योंकि 'धर्मी' के प्रतिनियत साध्य धर्म रूप विशेषण द्वारा विशिष्ट होने के कारण उसी को सिद्ध करना इष्ट होता है। अन्य शब्दों में, साध्य धर्म के विशेषण द्वारा युक्त होने के कारण धर्मी को ही सिद्ध करना इष्ट होता है। इसलिए प्रयोगकाल में धर्म विशिष्ट धर्मी-धर्म - धर्मी की संयुक्ता - साध्य होता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि 'धर्मी' क्या है अथवा धर्मी का स्वरूप क्या है? 1.2.3. धर्मी/पक्ष धर्मी को ‘पक्ष' कहते हैं, जैसा कि माणिक्यनन्दि ने लिखा है - "पक्ष इति यावत्' 3.22 (3.26) और जिसमें साध्य रहता है उसे पक्ष अर्थात् धर्मी कहते हैं। पुनः माणिक्यनन्दि ने धर्मी को परिभाषित करते हुए लिखा है - ___“प्रसिद्धो धर्मी।" 3.23 (3.27) 'अर्थात्, धर्मी प्रसिद्ध होता है। धर्मी अथवा पक्ष की प्रसिद्धि अर्थात् सिद्धि तीन प्रकार से होती है - प्रमाण से, विकल्प से और उभय से। धर्मी अथवा पक्ष किसी अनुमान में प्रमाण सिद्ध होता है, किसी अनुमान में विकल्प सिद्ध होता है और किसी अनुमान में उभय सिद्ध। जब धर्मी या पक्ष प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से सिद्ध होता है तब उसे प्रमाणसिद्ध कहते हैं, जैसे - यह प्रदेश अग्नियुक्त है। यहाँ अग्नियुक्त प्रदेश प्रत्यक्ष प्रमाणसिद्ध है। जिस धर्मी या पक्ष का अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही किसी प्रमाण से सिद्ध न हो, तब उसकी सिद्धि को विकल्पसिद्ध कहते हैं। ध्यातव्य है जब धर्मी विकल्पसिद्ध होता है तब सत्ता और असत्ता दोनों ही साध्य होते हैं। अर्थात् जब धर्मी/पक्ष विकल्पसिद्ध होता है तब साध्य सत्ता रूप भी हो सकता है और असत्ता रूप भी। सुनिश्चित बाधक-प्रमाण के अभाव से तो 'सत्ता' साध्य है और प्राप्त योग्य
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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