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________________ 86 जैनविद्या - 22-23 यह है कि पाक्षिक श्रावक व्रतों का अभ्यास करता है, इसलिए वह प्रारब्ध देशसंयमी है। नैष्ठिक प्रतिमाओं के व्रतों का क्रम से पालन करता है अत: वह घटमान है। और साधक आत्मलीन होता है अत: वह निष्पन्न देशसंयमी है। धर्म के विषय में धर्मपत्नी को सबसे अधिक व्युत्पन्न करना चाहिए - दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक उत्कृष्ट प्रेम को करता हुआ अपनी धर्मपत्नी को धर्म में अपने कुटुम्ब की अपेक्षा अतिशय रूप से व्युत्पन्न करे; क्योंकि मूर्ख अथवा विरुद्ध स्त्री धर्म से पुरुष को परिवार के लोगों की अपेक्षा अधिक भ्रष्ट कर देती है।24 स्त्री की उपेक्षा नहीं करना चाहिए - पति के द्वारा की गई उपेक्षा ही स्त्रियों में उत्कृष्ट वैर का कारण होता है, इसलिए इस लोक और परलोक में सुख को चाहनेवाला पुरुष कभी भी स्त्री को उपेक्षा की दृष्टि से न देखे। ___ नैष्ठिक श्रावक गो आदि जानवरों से जीविका छोड़े - नैष्ठिक श्रावक गो, बैल आदि जानवरों द्वारा अपनी आजीविका छोड़े। यदि ऐसा करने में असमर्थ हो तो उन्हें बन्धन, ताड़न आदि के बिना ग्रहण करे । यदि ऐसा करने में असमर्थ हो तो निर्दयतापूर्वक उस बन्धनादिक को न करे।26 मुनियों को दान देने के प्रभाव से गृहस्थ पंचसूनाजन्य पाप से मुक्त हो जाता है - पीसना, कूटना, चौका-चूली करना, पानी रखने के स्थान की सफाई और घरद्वार को बुहारना - ये गृहस्थों की पञ्चसूना क्रियायें हैं । इनसे गृहस्थ जो पाप संचय करता है, वह मुनियों को विधिपूर्वक दान देने से धो डालता है अर्थात् उसके पाप नष्ट हो जाते हैं । श्रावक की दिनचर्या - पण्डितप्रवर आशाधरजी ने श्रावक की प्रतिदिन की क्या चर्या होनी चाहिए, इसका सुन्दर निरूपण सागारधर्मामृत के छठे अध्याय में किया है । यह वर्णन अन्य श्रावकाचारों में विरल है। ब्राह्म मुहूर्त में उठकर पहिले नमस्कार मंत्र पढ़ना चाहिए, तदनन्तर 'मैं कौन हूँ', 'मेरा धर्म क्या है' और 'क्या व्रत है', इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए। अनादि काल से संसार में भ्रमण करते हुए मैंने अर्हन्त भगवान के द्वारा कहे हुए इस श्रावक धर्म को कठिनाई से प्राप्त किया है । इसलिये इस धर्म में प्रमादरहित प्रवृत्ति करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिज्ञा करके शय्या से उठकर स्नानादि से पवित्र होकर एकाग्र मन से समता परिणामरूपी अमृत के द्वारा श्रावक ऐश्वर्य और दरिद्रपना पूर्वोपार्जित कर्मानुसार होते हैं ऐसा विचार करता हुआ जिनालय जावे।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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