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________________ जैनविद्या - 22-23 अप्रेल - 2001-2002 81 पण्डितप्रवर आशाधर के सागारधर्मामृत की प्रमुख विशेषताएँ - डॉ. रमेशचन्द जैन जैनागम में निष्णात पण्डितप्रवर आशाधर तेरहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान थे। उनका 'सागारधर्मामृत' उनके वैदुष्य का परिचायक तो है ही, साथ ही उनके विस्तृत स्वाध्याय और निपुणमति को भी द्योतित करता है। उन्होंने अपने समय तक लिखे गए सभी श्रावकाचारपरक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। वे ब्राह्मण साहित्य के भी गवेषी विद्वान् थे। तत्कालीन समाज की आवश्यकता का भी उन्हें ध्यान था। अतः उनका सागारधर्मामृत एक ऐसी रचना बन गई जिसका अध्ययन करने पर पूर्ववर्ती श्रावकाचारों का अध्ययन अपने आप हो जाता है । इसके अतिरिक्त उनके कथनों की अपनी विशेषतायें भी हैं, जिन पर प्रकाश डाला जाता है - भद्र का लक्षण - पण्डित आशाधरजी के समय तक ज्ञान का ह्रास हो चुका था। सच्चे उपदेश देनेवाले दुर्लभ थे। अपनी पीड़ा को वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं - कलिप्रावृषि मिथ्यादिङ्मेघच्छन्नासु दिक्ष्विह। खद्योतवत्सुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित् क्वचित्॥ 1.7॥ बड़े दुःख की बात है, इस भरत क्षेत्र में पंचम कालरूपी वर्षाकाल में सदुपदेश रूपी दिशाओं के मिथ्या उपदेशरूपी बादलों से व्याप्त हो जाने पर सदुपदेश
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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