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________________ जिनवाणी यत्प्रसादान्न जातु स्यात् पूज्यपूजाव्यतिक्रमः । तां पूजयेज्जगत्पूज्यां स्यात्कारोड्डुमरां गिरम् ॥ 2.43 ॥ सा.ध. - जिसके प्रसाद से कभी भी पूज्य अर्हन्त - सिद्ध-साधु और धर्म की पूजा में यथोक्त विधि का लंघन नहीं होता, उस जगत् में पूज्य और स्यात् पद के प्रयोग के द्वारा एकान्तवादियों से न जीते जा सकनेवाले श्रुतदेवता ( जिनवाणी) को पूजना चाहिये । ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम्। न किंचिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥ 2.44 ॥ सा.ध. • जो भक्तिपूर्वक श्रुत को पूजते हैं वे परमार्थ से जिनदेव को ही पूजते हैं। क्योंकि सर्वज्ञदेव ने श्रुत (जिनवाणी) और देव में थोड़ा-सा भी भेद नहीं कहा है। अनु. - पं. कैलाशचन्द शास्त्री
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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