________________
63
जैनविद्या - 22-23
प्रतिमा परिमाण फल - प्रतिमाओं की पूजा के सन्दर्भ में गृहस्थों को संकेत करते हुए लेखक ने अपने घर के चैत्यालय में एक विलस्त से अधिक परिमाणवाली प्रतिमा नहीं रखने का परामर्श दिया है। वे चाहते हैं ऐसी प्रतिमा जिनमन्दिर में ही पूजने योग्य है -
न वितस्त्यधिकां जातु प्रतिमां स्वगृहेर्चयेत्॥ 1.81॥ प्रतिमा-प्रमाण के सम्बन्ध में कहा गया है कि घर के चैत्यालय में एक अंगुल की प्रतिमा श्रेष्ठ होती है। दो अंगुल की धननाशक, तीन अंगुल की वृद्धिकारक, चार अंगुल की पीड़ाकारी, पाँच अंगुल की वृद्धिकारी, छह अंगुल की उद्वेगकारी, सात अंगुल की गो-वृद्धिकारक, आठ अंगुल की गो-हानिकारी, नौ अंगुल की पुत्रवृद्धिकारी, दश अंगुल की धननाशक, ग्यारह अंगुल की सर्व कामार्थ साधक होती है। इससे बड़ी प्रतिमा नहीं
रखें -
अथातः संप्रवक्ष्यामि गृहविंवस्य लक्षणम्। एकांगुलं भवेच्छ्रेष्टं द्वयगुलं धननाशनम्॥1॥ त्र्यंगुले जायते वृद्धिः पीडा स्याच्चतुरंगुले। पंचांगुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षडंगुले ॥ 2 ॥ सप्तांगुले गवांवृद्धिानिरष्टांगुले मता। नवांगुले पुत्रवृद्धिर्धन नाशेत्दशांगुले ॥3॥ एकादशांगुलं बिंबं सर्वकामार्थसाधकम्। एतत्परमाणमाख्यातन ऊक्न कारयेत् ॥4॥ द्वादशांगुलपर्यंते यवाष्टांशनतिकमात्।
स्वगृहे पूजयेद्विम्बं न कदाचित्ततोधिकम्॥5॥ शुभ प्रतिमा - वह प्रतिमा प्रतिष्ठा योग्य नहीं होती तो पहले प्रतिष्ठित की जा चुकी हो, जिसका जिनलिंग को छोड़ अन्य आकार हो अथवा जिसका पहले शिव आदि का आकार रहा हो बाद में जिनदेव का आकार दिया गया हो अथवा जिसके आकार में सन्देह हो या प्रतिमा जीर्ण हो गयी हो।
नार्चाश्रितानिष्टरूपां व्यंगितां प्राक् प्रतिष्ठिताम्।
पुनर्घटित संदिग्धां जर्जरां वा प्रतिष्ठयेत्॥ 1.83॥ जलयात्रा - वस्त्राभूषण और चन्दनलेपादि से विभूषित होकर इन्द्र सर्वप्रथम प्रतिष्ठा करानेवाले प्रतीन्द्र दाता के साथ हाथी या घोड़े पर बैठकर प्रथम दिन सरोवर पर जावे। साथ में श्रेष्ठ पत्तों से आवृत, दूध-दही-अक्षत से पूजित, फल से पूर्ण, मालावृत कंठवाले नये घड़े सिर पर धारण किये प्रसन्नचित्त कुलीन स्त्रियाँ चलें। साधर्मी भाइयों तथा छत्र,