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________________ 56 जैनविद्या - 22-23 जीवन ___ पण्डित आशाधर को भवाङ्गभोगेषु निर्विण्ण' और 'दुःखमीलक' कहा जाता है । फिर भी उन्होंने गृहस्थ रहते हुए ही स्व-पर कल्याण की जीवनोपयोगी प्रवृत्ति को अङ्गीकार किया। यद्यपि उन्होंने निर्ग्रन्थ मुनि लिङ्ग धारण नहीं किया, श्री मोतीलाल ने कहा है कि फिर भी उन्होंने समसामयिक मुनियों से भी अधिक जैनधर्म-साहित्य की सेवा और प्रभावना की। उनका साहित्य-निर्माण ही इस तथ्य का बोधक है कि वे अपने समय के सर्वाधिक उद्भट विद्वान थे और सम्भवतः दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में उनके पश्चात् उनकी योग्यता एवं क्षमतावाला तत्वतलस्पर्शी विद्वान, कम से कम ग्रंथकर्ता के रूप में तो दुर्मिल ही है। उनके पास अनेक मुनि भट्टारकों ने और अन्य अजैन, जैनेतर विद्वानों तक ने ग्रन्थाध्ययन किया था। ___वे अपने बाद विविध विषयों पर विशाल साहित्य छोड़ गये हैं। इन सभी का उल्लेख उनके ग्रंथों की अनन्य प्रशस्तियों में प्राप्त होता है। उसका अधिकांश अभी तक अप्रकाशित है, तथा अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अभी तक पता ही नहीं चल सका है। इससे सिद्ध होता है कि समाज द्वारा जैन साहित्य की जो रखरखाव की शैली थी वह दोषपूर्ण रही। उनके अनुपलब्ध ग्रंथों में मुख्यत: निम्नलिखित ग्रंथ हैं - भरताभ्युदयचम्पू, राजीमतीविप्रलम्भ (काव्य), अष्टांगहृदयोद्योतिनी (वाग्भट के सुप्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ की टीका), धर्मामृत की पंजिका टीका, प्रमेयरत्नाकर (न्याय), अध्यात्म रहस्य, अमरकोष टीका, रुद्रट के काव्यालंकार की टीका। शोध संस्थानों को इनकी खोज और प्रकाशन अपने हाथ में लेना चाहिए। पण्डित मोतीलाल ने पण्डित आशाधर के त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र ग्रंथ की टीका मराठी भाषा में की है। प्रस्तावना में उन्होंने पण्डित आशाधर के श्लोक से प्रारम्भ किया है - धर्मामृतमयीं वृद्धिंकृत्वा भव्येषु निर्वृतः। तं पार्वताप मूर्छाभूमार्यां पर्युपारमहे ॥ उन्होंने पण्डितजी को सरस्वती पुत्र कहते हए उनके ग्रन्थों को संस्कृत के वैदिक साहित्य से भी उच्चतर होने को अतिशयोक्ति नहीं कहा है। उनका जन्म-स्थान मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत माँडलगढ़ नगर बतलाया है जो नागौर के पास सपावलक्षर (सवालाख) देश में बतलाया गया है। बादशाह शहाबुद्दीनकृत अत्याचार के भय से पण्डित आशाधरजी देश छोड़कर वि.सं. 1249 में मालव देश की धारानगरी में जा बसे थे। उस समय वहाँ के राजा विन्ध्यवर्मा के मंत्री विल्हण ने उनका सत्कार किया। उनके उत्तराधिकारी पुत्र,
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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