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________________ 30 जैनविद्या - 22-23 से उसकी पत्नी के धर्म-हितार्थ रचा गया। इसकी प्रशस्ति के चतुर्थ पद में पण्डित जी ने स्वयं को 'गृहस्थाचार्य कुंजर' के रूप में अभिहित किया। इसीप्रकार 'त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र' की रचना जाजाक पण्डित की प्रेरणा से नित्य स्वाध्याय हेतु की। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस काल के श्रावक एवं श्रमण निश्छल, सरल एवं गुणग्राही प्रकृति के सच्चे आत्मार्थी थे जिनकी प्रेरणा, सद्भाव एवं सहयोग से पण्डित जी निर्विघ्न जीवनपर्यन्त साहित्य सृजन करते रहे और उनका साहित्य उन्हीं के काल में स्वाध्याय का विषय बना। प्रभावोत्कारी लेखक एवं प्रमुख श्रावक ___पं. आशाधरजी का लेखन आगम-आधारित तो था ही, वह युक्तिपूर्ण, प्रभावोत्कारी भी था। उनके समकालीन या निकटवर्ती उत्तरकालीन संस्कृत गद्य-पद्य के महाकवि अर्हद्दास हुए। उन्होंने संस्कृत भाषा में 'मुनिसुव्रतकाव्य', 'पुरुदेव चम्पू' एवं 'भव्यजन कण्ठाभरण' की रचना की। पूर्व में वे राग के वशीभूत होकर उन्मार्गी हो गये थे। किन्तु पं. आशाधरजी के धर्मामृत ग्रंथ का उन पर गहन प्रभाव पड़ा और वे कुमार्ग छोड़कर जिनधर्मी श्रावक हो गये। इसकी पुष्टि अर्हद्दासजी ने मुनिसुव्रत काव्य के दशम अध्याय के 64वें पद में 'सद्धर्मामृत मुद्दतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात' कह कर की है। उन्होंने 65वें पद में पं. आशाधरजी का नामोल्लेख कर जिनेन्द्रदेव के महान सत्पथ का आश्रय लेने का बहुमान व्यक्त किया है। चम्पूदेव के अन्तिम पद में भी आपने मिथ्यामार्ग छोड़कर सन्मार्ग में लगाने हेतु पं. आशाधरजी को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। महाकवि अर्हद्दास ने अपने 'भव्यजनकण्ठाभरण' के पद्य 236 में महाकवि पं. आशाधरजी के गृहस्थ जीवन और उनकी सूक्तियों की प्रशंसा करते हुए लिखा है - 'उन आचार्य आदि की सूक्तियों द्वारा ही जो संसार से भयभीत प्राणी गृहस्थाश्रम में रहते हुए आत्मधर्म का पालन करते हैं और शेष ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और साधु आश्रम में रहनेवालों की सहायता करते हैं, वे आशाधर सूरि प्रमुख श्रावक धन्य हैं। इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि पं. आशाधरजी महान कवि-विद्वान होने के साथ ही श्रावक धर्म का पालन करते हुए चतुर्विध संघ की सहायता करते थे। ___ आपकी बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित होकर मुनिराज उदयसेन ने आपको 'नयविश्वचक्षु' तथा 'कलिकालीदास' कहकर महिमामण्डित किया। महाविद्वान यतिपति मदनकीर्ति ने आपको 'प्रज्ञापुंज' कहकर सम्मानित किया। राजा विन्ध्य वर्मा के महासन्धि-विग्रह मंत्री कवीश विल्हण थे।आपने पण्डित जी की विद्वत्ता पर मोहित होकर एक श्लोक में उनकी 'सरस्वती-पुत्र' के रूप में प्रशंसा की। श्लोक इस प्रकार है' - आशाधर त्वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्ग सौन्दर्यमजर्यमाएँ सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परे वाच्यमयं प्रपञ्चः॥6॥
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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