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________________ जैनविद्या - 22-23 19. सरस्वती अष्टक 20. पादूका अष्टक 21. दशलक्षणिक जयमाल - चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगाँव में हस्तलिखित प्रति है । चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगाँव में हस्तलिखित प्रति है । - 11 चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगाँव में हस्तलिखित प्रति है । 22. वृतारोपण - चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगाँव में हस्तलिखित प्रति है। 23. महर्षि स्तवन चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगाँव में हस्तलिखित प्रति है । इनमें पूर्वांकित भारतेश्वराभ्युदय काव्य ( स्वोपज्ञ टीका), क्रियाकलाप, भूपाल चतुर्विंशतिका टीका, प्रमेयरत्नाकर और आराधनासार टीका को मिला दिया जाए तो पं. आशाधर के 28 ग्रन्थ अप्रकाशित हैं । रचनाकाल इस प्रकार स्पष्ट है कि पं. आशाधर ने धारा में 25 वर्ष की अवस्था में अध्ययन समाप्त करने के बाद नालक्षा में जाकर साहित्य सृजन करना आरम्भ कर दिया होगा । अतः शान्तिकुमार ठवली का यह कथन यथार्थ है कि आशाधर ने वि.सं. 1250 से 1300 (अर्द्धशतक) तक साहित्य-रचना की थी। विद्वानों का यह मत है कि उनका मुख्य रचनाकाल वि.सं. 1285, विक्रम की तेरहवीं शती का उत्तरार्द्ध ही था । आशार के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि आशाधर ने राजस्थान मेवाड़ के मांडलगढ़ को अपनी जन्मभूमि, धारानगरी को विद्याभूमि और नालछा hi अपनी कर्मभूमि बनायी थी। उन्होंने अध्यापन, शास्त्रसभा, नित्य स्वाध्याय एवं साहित्य सृजन करके न केवल जैनधर्म और समाज को अपना योगदान दिया बल्कि राष्ट्र का गौरव बढ़ाया। आशाधर मुनि या योगी नहीं थे, लेकिन वे येगियों के मार्गदर्शक और उनके अध्यापक थे । आशाधर बहुश्रुत विद्वान थे । संस्कृत भाषा पर उनका पूरा अधिकार था, इसलिए उन्होंने संस्कृत भाषा में ग्रन्थों की रचना की थी। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने कहा भी है - 'संस्कृत भाषा का शब्द भण्डार भी उनके पास अपरिमित है। और वे उसका प्रयोग करने में कुशल हैं । इसी से इनकी रचना क्लिष्ट हो गयी है। यदि उन्होंने उस पर टीका नरची होती तो उसको समझना संस्कृत के पंडित के लिए भी कठिन हो जाता। इनकी कृतियों की सबसे बड़ी बात दुरभिनिवेश का अभाव है । ' उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि पण्डित आशाधर वास्तव में कलि कालीदास थे । उन्होंने धर्मामृत जैसे महाकाव्यों का सृजन किया । इनके ग्रन्थों की भाषा भी प्रौढ़ संस्कृत है। यह कहना सच है कि यदि उन्होंने अपनी ग्रन्थों पर टीकाओं की रचना न की होती तो उनको समझना कठिन हो जाता । विविध विषयों से सम्बन्धित 108 ग्रन्थों की रचना कर उन्होंने स्वयं अपने आपको कालिदास सिद्ध कर दिया ।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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