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________________ 117 जैनविद्या - 22-23 मद्यपान - जो पेय पदार्थ मादकता को लाए वह मद्यपान है। मद्यपायी नशे में इतना चूर रहता है कि उसमें सद्-असद् का विवेक ही प्रायः समाप्त हो जाता है । समस्त मर्यादाएँ उसके सामने बेबस-सी रहती हैं। मानवता की समस्त जड़ें जर्जरित हो जाती हैं। मनुष्य अशोभनीय कर्म कर इहलोक और परलोक में भी अनन्त दुःखों को प्राप्त होता है। पं. आशाधरजी मद्य के विषय में तो यहाँ तक कहते हैं कि इसकी एक बूंद में उत्पन्न (हुए) जीव निकलकर यदि उड़ने लगें तो उनसे ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक - ये तीनों ही लोक भर जाएँ। साथ ही इसके सेवन से मोहित हुए जीव इस लोक और परलोक दोनों लोकों का सुख नष्ट करते हैं । इहभव व परभव दोनों भवों को दुःखस्वरूप बना देते हैं। अस्तु आत्मा का हित चाहनेवाले मनुष्य को इसके सेवन न करने का दृढ़ नियम लेना ही श्रेयस्कर है। मद्यपान एक ऐसा ज़हर है जो व्यक्ति को तिल-तिल कर मारता है। इसक सेवन से क्रियावाही और ज्ञानवाही नाड़ियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, स्नायुतन्त्र विकृत हो जाते हैं । शरीर के समस्त अंगोपांग शिथिल हो जाते हैं । कालान्तर में यह व्यक्ति को सन्निपात के सन्निकट पहुँचा देता है । मद्यपान व्यक्ति को अन्तत: शरीर और मन दोनों से बेकार कर देता है। वह उसे शिव से शव बना देता है। पण्डित आशाधरजी कहते हैं कि मद्यपान से उसमें उत्पन्न होनेवाले अनेक जीवों के घात होने से द्रव्य हिंसा तथा मद्यपायी के परिणाम क्रोध, कामादिरूप होने से भावहिंसा होती है। इसप्रकार मद्यपान हिंसा से युक्त है। इनके सेवन करनेवाले दुराचरण करते हुए महादु:खी होते हैं तथा त्याग करनेवाले दोनों प्रकार की हिंसाओं से बचते हुए सुखी होते हैं। मनुस्मृति में भी मदिरा को किसी मानव के पीने योग्य नहीं माना गया है। महाभारत22 और बौद्ध जातकों में भी मदिरापान के दुष्परिणामों का उल्लेख मिलता है। ___ वास्तव में मद्यपान दुर्गुणों की खान है। संसार में जितने भी दुर्गुण हैं वे सब इसमें समाए हुए हैं। अस्तु यह सर्वथा निन्दनीय व त्याज्य माना गया है। वेश्यागमन - लज्जा और शील से अयुक्त स्त्री वेश्या कहलाती है। वेश्यागामी अपनी शक्ति, धन और चरित्र का जहाँ नाश करता है वहीं वह एड्स जैसे अनेक भयंकर रोगों से घिरा रहता है, ऐसे कामभोगी प्रवृत्ति के व्यक्ति का विवेक भी समाप्त हो जाता है । वह अपने सुन्दर जीवन को नरक बना लेता है। इतना ही नहीं वह अपने पापरूपी गागर को भरकर इहलोक के साथ-साथ परलोक को भी बिगाड़ देता है। पण्डितप्रवर आशाधरजी कहते हैं कि वेश्यासेवन हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों से भरे होने के कारण इसमें संलिप्त व्यक्ति अपना और अपनी जाति को भ्रष्ट-नष्ट करता हुआ पुरुषार्थ चतुष्ट्य से च्युत हो जाता है। अत: हर मनुष्य के लिए वेश्या-सेवन का
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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