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________________ 116 जैनविद्या - 22-23 देता है अर्थात् वह स्वयं तो नष्ट होता ही है साथ ही उसके धर्म, अर्थ, काम, ये समस्त पुरुषार्थ भी नष्ट हो जाते हैं । अन्ततः अपनी जाति को भी रसातल में पहुँचा देता है। जूआ में आसक्त मनुष्य का विश्वास उसकी स्वयं की जननी भी नहीं करती। वह स्वजन, परिजन, और देश-विदेश सर्वत्र निर्लज्ज हो जाता है। वह न इष्ट-मित्र गिनता है, न गुरुओं को और न माता-पिता को, वह तो अहर्निश अनेक पापात्मक कार्यों में ही घिरा रहता है।' ऋग्वेद में द्यूतक्रीड़ा को जीवन को बरबाद करनेवाला दुर्गुण बताया गया है। अस्तु, यह वहाँ भी त्याज्य है। वास्तव में जूआ पापों का कुआँ है अर्थात् सब अनर्थों का कारण है। अस्तु, एक स्वस्थ समाज की संरचना के लिए इस पाप के कुएँ को पाटा जाना ही हितकर है। मांसभक्षण - मांस हिंसापरक होने के कारण जहाँ एक ओर पाप और अधोगति का कारण बनता है वहीं इसको खानेवाला अपने को भयंकर रोगियों की कतार में पाता है। मांस-भक्षण करनेवाले के भाव क्रूर और निर्दयी हो जाते हैं । राक्षसी वृत्ति का जो स्वरूप है वह उसमें प्रतिबिम्बित रहता है। ___ मांस खाने से दर्प बढ़ता है। मद्यपान की इच्छा वेगवती होती है। इतना ही नहीं जूआ खेलने की लालसा भी बढ़ने लगती है अर्थात् मांस-भक्षण का व्यसनी सभी प्रकार के दोषों में फँसता चला जाता है। महाभारत में तो यह स्पष्ट उल्लेख है कि मांसाहार प्राणिजन्य है क्योंकि मांस न तो पेड़ पर लगता है और न जमीन में ही पैदा होता है। आचार्य मनु भी मांस की उपलब्धि जीवों की हिंसा से मानते हैं। पण्डित आशाधरजी कहते हैं कि मांस खाने से द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा दोनों प्रकार की हिंसा होती है और मांस-भक्षक अनन्त दुर्गतियों में भ्रमण करता हुआ अनन्त दु:ख भोगता है। आगे पण्डित प्रवर कहते हैं कि मांस कैसा ही हो, चाहे कच्चा हो या पका हुआ हो और चाहे पक रहा हो हर समय उसमें अनन्त जीव उत्पन्न होते रहते हैं । पण्डित प्रवर की दृष्टि में मांसाहारी जब अपने प्रयत्न के बिना ही स्वयं मरे हुए जीव का मांस स्पर्श करने अथवा खाने से हिंसक कहलाता है तो प्रयत्नपूर्वक मारे हुए जीव का मांस भक्षण करनेवाला निश्चय ही महाहिंसक है। वास्तव में जो विशुद्ध आचरणों का घमण्ड करते हुए भी मांसभक्षण करते हैं वे सर्वथा निंद्य हैं। पण्डित प्रवर इस व्यसन के सन्दर्भ में और गहन चिन्तन करते हुए कहते हैं कि जो मांस खाने का संकल्प भी करता है, उसकी इच्छा भी करता है, वह सौरसेन राजा के समान नरक आदि अनेक दुर्गतियों में अनन्त काल तक परिभ्रमण करता है । इसके विपरीत जिसने मांस-भक्षण का त्याग कर दिया वह प्राणी उज्जैन के चंड नामक चांडाल अथवा खदिरसार नामक भील सम्राट की भाँति (जिन्होंने मांस का त्याग किया था) स्वर्ग आदि अनेक सुगतियों के अनन्त सुख भोगता है। ___ इस प्रकार हर दृष्टि से मांसाहार विनाश का द्वार है।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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