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________________ 40 जैनविद्या - 20-21 __ध्यान के भेद - ऋत - दुःख अथवा अर्दन - आर्ति, इनसे होनेवाला ध्यान आर्तध्यान है। रूलाने वाले को रूद्र-क्रूर कहते हैं, रूद्र का कर्म या रूद्र में होनेवाला ध्यान रौद्रध्यान है। धर्मयुक्त ध्यान धर्मध्यान है। जैसे मैल छूट जाने से वस्त्र शुचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मलगुणरूप आत्म-परिणति भी शुक्ल है। इसमें आदि के दो ध्यान (आर्त-रौद्र) अपुण्यास्रव के कारण होने से अप्रशस्त है और शेष दो (धर्म-शुक्ल) कर्मदहन में समर्थ होने से प्रशस्त हैं (9-28-1/4)। भाव और सिद्धावस्था के भाव - अकलंकदेव ने अध्याय एक के सूत्र पाँच में भाव को परिभाषित किया है। 'भवनं भवतीति वा भावः' अर्थात् होना मात्र या जो होता है, सो भाव है (1-5-0)। इससे स्पष्ट होता है कि कुछ करने या नहीं करने के विकल्पों से परे मात्र होनेरूप ज्ञायकभाव ही जीव का स्वभाव भाव है जो धर्मस्वरूप है। जीव के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव होते हैं। इनमें प्रथम चार कर्म-सापेक्ष और अंतिम कर्म-निरपेक्ष है। इनके 53 भेद हैं । ये भाव अशुभ, शुभ और शुद्धरूप होते हैं। दसवें अध्याय के सूत्र एक के अनुसार मोहक्षय होने पर केवलज्ञानादि उत्पन्न होते हैं। मोहादि का क्षय परिणाम विशेष से होता है (10-1-3)। सूत्र चार के अनुसार सिद्ध भगवान के सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व ये चार क्षायिकभाव और जीवत्वरूप पारिणामिक भाव होते हैं। ज्ञानदर्शन के अविनाभावी अनंतवीर्य आदि होते हैं । अनंतवीर्य से रहित व्यक्ति के अनन्तज्ञान नहीं हो सकता और न ही अनंतसुख ही, क्योंकि सुख तो ज्ञानमय ही है (10-4-3)। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तत्त्वार्थवार्तिक में अकलंकदेव ने जैन सिद्धान्त और आगम का विशद वर्णन करते हुए मुक्ति हेतु अनेकान्तमयी, आत्माश्रित अध्यात्म पक्ष को ही उपादेय स्वीकार किया है। भव्यात्माओं को इसका रहस्य समझना अपेक्षित है। 2. अष्टशती - देवागम विवृत्ति स्वामी समन्तभद्र ने देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा) में अनेकान्तवाद की स्थापना करते हुए सर्वज्ञ की सिद्धि की थी। अकलंकदेव ने देवागम स्तोत्र पर 800 श्लोक प्रमाण विवृति (भाष्य) लिखी जो अष्टशती कहलाती है। दार्शनिक क्षेत्र में यह वृत्ति संक्षिप्त, गहन और अर्थगाम्भीर्ययुक्त अद्भुत कृति है। विश्व के दर्शन दो भागों में वर्गीकृत हैं- एक अनेकान्तवादी और दूसरा एकान्तवादी। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, शेष एकान्तवादी। देवागम स्तोत्र में अनेकान्तवादी वक्ता को आप्त और एकान्तवादी वक्ता को अनाप्त बताते हुए विभिन्न दर्शनों के द्वैत-अद्वैतवाद, शाश्वत-अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यवाद, अन्यता-अनन्यतावाद, सापेक्ष-अनपेक्षवाद, हेतुअहेतुवाद, विद्वान-बहिरर्थवाद, दैव-पुरुषार्थवाद, पुण्य-पापवाद, बन्ध-मोक्षकारणवाद आदि की समीक्षा की गयी है । अष्टशती में इन विषयों के अतिरिक्त अन्य नवीन विषयों पर भी प्रकाश डाला है जो मूलग्रंथ में छूट गये हैं। सर्वज्ञ की चर्चा में सर्वज्ञ-सामान्य में विवादीचार्वाक और मीमांसकों के साथ, सर्वज्ञ-विशेष में विवादी बौद्ध आदि की आलोचना कर दिङ्नाग आदि बौद्ध नैयायिकों के पक्ष का खण्डन किया है । सप्तभंगी में समन्तभद्र ने केवल चार भंगों का ही उपयोग
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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