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________________ जैनविद्या - 20-21 क्रोध आदि, सरल व्यवहार, अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, दुष्टकार्यों से निवृत्ति, स्वागत-तत्परता, कम बोलना, प्रकृति-मधुरता, लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्ष्यारहित परिणाम, अल्पसंक्लेश, कापोतपीत लेश्यारूप परिणाम, मरणकाल में धर्मध्यानपरिणति”, कल्याणमित्र संसर्ग, आयतनसेवा, सद्धर्मश्रवण, स्वगौरवदर्शन, निर्दोष प्रोषधोपवास, तप की भावना, बहुश्रुतत्व, आगमपरता, कषायनिग्रह, पात्रदान, पीतपद्मलेश्या परिणाम अविसंवादन, धार्मिक व्यक्तियों के प्रति आदर भाव, संसार भीरुता, अप्रमाद, निश्छलचारित्र'', आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, परसद्गुणोद्भावन, आत्म-असद्गुणच्छान, गुणीपुरुषों के प्रति विनयपूर्वक नम्रवृत्ति और ज्ञानादि होने पर भी तत्कृत उत्सेक-अहंकार न होना, पर का तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास-बदनामी आदि न करना, साधर्मी व्यक्तियों का सम्मान, उन्हें अभ्युत्थान अंजलि नमस्कार आदि करना। इसप्रकार हम देखते हैं कि भट्ट अकलंकदेव ने मानवों को अपने नाम सदृश बनाने के लिए 'तत्त्वार्थवार्तिक' में पद-पद पर अनेकानेक मूल्यों की प्रतिष्ठापना की है और वे उन मूल्यों को मूल्यवान बनाने में समर्थ सिद्ध हुए हैं। आज के युग में जबकि हर क्षेत्र में मूल्यों का संकट है ऐसे समय में मानवीय मूल्यों की पहचान और उन्हें महत्ता प्रदान कर जीवन में स्थान देना होगा तभी मानव, मानव कहलाने के योग्य होगा। श्री त्रिपाठी के मत में, "आध्यात्मिकता और भौतिकता के समन्वित बोध से आज उस नयी मानवता की स्थापना संभव है जो संकट के इस समय अपने कल्याण का मार्ग पाने में समर्थ हो सकती है। 181 भट्ट अकलंकदेव भी मानव को उसे परा मानवीय बनाकर सिद्धत्व प्राप्त कराना चाहते हैं जो उनके बताये मार्ग पर चलने से अवश्य ही प्राप्त होगा। अंत में 'पंत' की इस भावना के साथ मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने की भावना के साथ विराम लेता हूँ - आज हमें मानव मन को करना आत्मा के अभिमुख मनुष्यत्व में मज्जित करने युग जीवन के सुख-दुख पिघला देगी लौह पुष्टि को आत्मा की कोमलता जन बल से रे कहीं बड़ी है मनुष्यत्व की क्षमता॥2 1. वृहत् हिन्दी कोश, पृष्ठ 888 2. वही, पृष्ठ 912 3. हिन्दी कविता, संवेदना और दृष्टि : राममनोहर त्रिपाठी, पृष्ठ 50 4. मानव मूल्य और साहित्य : धर्मवीर भारती, भूमिका-2 5. तत्त्वार्थवार्तिक, 5.20.5 6. वही, 1.3 (मंगलाचरण) 7. वही, 4.26.3 8. वही, 2.50.1 9. मानव मूल्य और साहित्य, भूमिका-1
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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