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जैनविद्या 18
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार का प्रतिपाद्य
- डॉ. राजीव प्रचंडिया
अभिव्यक्ति व्यक्ति की सहज प्रवृत्ति है। जब वह शब्दों में कैद होती है तब वह साहित्य का रूप धारण करती है। विश्व साहित्य में भारतीय साहित्य और भारतीय साहित्य में जैन साहित्य की विशेषता अप्रतिम है। जैन साहित्य प्रधानतया निवृत्तिपरक होने से उसमें जो कथ्य-तथ्य गर्भित है वह है सांसारिक एषणाओं तथा भोगवासनाओं में लिप्त जीवन की निस्सारता। जीवन का सार है अनन्त चतुष्टय की सम्प्राप्ति । अनन्त चतुष्टय ही आत्मा का यथार्थ स्वरूप है। आत्मा की यथार्थता भौतिकता की अपेक्षा अध्यात्मसाधना से सुनिश्चित है। अध्यात्म-साधना से कर्म-कुल शीर्ण होते हैं। ये कर्म-कुल आत्म-यथार्थता के बाधक तत्व हैं। यथार्थता का एक बार प्रकटीकरण या साक्षात्कार हो जाने पर अनादिकालीन जन्म-मरण का चक्र टूट या छूट जाता है। फिर जो है वह शाश्वतता से सम्पृक्त होता है।
जैन साहित्य का मूल स्रोत है जिनेन्द्रवाणी का संकलितरूपआगमजो चार अनुयोगों- प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग में विभक्त है। द्वितीय शताब्दी के दिगम्बर जैनाचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत रत्नकरण्ड श्रावकाचार' चरणानुयोग से अनुप्राणित जैन साहित्य या आगम का प्रतिनिधित्व करता है। श्रावकाचार से संदर्भित अनेक कृतियाँ दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत हैं। यथा-आचार्य योगेन्द्रदेव - (ई.श.6) कृत नवकार श्रावकाचार, आचार्य अमितगति (ई. 993-1021) - कृत श्रावकाचार, आचार्य वसुनन्दि (ई. 1068-1118) - कृत श्रावकाचार, आचार्य सकलकीर्ति (ई. 1406-1442) - कृत प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, पंडित आशाधर (ई. 1173-1243) - कृत सागार धर्मामृत तथा आचार्य पद्मनन्दि (ई. 1280-1330) - कृत श्रावकाचार । इन सभी कृतियों में श्रावकों के आचार पक्ष पर प्रमुखरूप से