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________________ जैनविद्या 18 चारित्र के बारह भेद किये हैं जिनमें पांच महाव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत शामिल हैं। इसके बाद हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रहरूपी पांच पापों के स्थूलरूप से त्याग को अणुव्रत बतलाया है। अहिंसादि पांचों अणुव्रतों का स्वरूप उसके पांच-पांच अतिचारोंसहित दिया है। साथ ही यह प्रति किया है - मद्य-मांस और मधु के त्यागसहित ये पांच अणुव्रत गृहस्थों के अष्ट मूलगुण कहलाते हैं। 74 4. चौथे परिच्छेद में दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत और भोगोपभोग-परिमाण व्रत नाम से तीन गुणव्रतों का उनके पांच-पांच अतिचारोंसहित वर्णन है। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्याऐसे अनर्थदंड के पांच भेदों का वर्णन है, भोगोपभोग की व्याख्या है और उसमें कुछ विशेष त्याग क विधान, व्रत का लक्षण और यम-नियम का स्वरूप भी दिया है। 5. पांचवे परिच्छेद में देशावकाशिक, सामायिक, प्रौषध उपवास और वैयावृत्य नाम से चार शिक्षाव्रतों का पांच-पांच अतिचारों सहित वर्णन है। सामायिक और प्रोषधोपवास के कथन में कुछ विशेष कर्तव्यों का भी उल्लेख किया है और सामायिक के समय गृहस्थ के चेलोपसृष्ट मुनि की उपमा दी है। वैयावृत्य में संयमियों को दान देने और देवाधिदेव की पूजा करने का भी विधान किया है और उस दान के आहार, औषध, उपकरण, आवास- ऐसे चार भेद किये हैं। 6. छठे परिच्छेद में अनुष्ठानावस्था के निवेशसहित सल्लेखना - समाधिमरण का स्वरूप और उसकी आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए संक्षेप में समाधिमरण की विधि का उल्लेख किया है और सल्लेखना के पांच अतिचार भी दिये हैं। अंत में निःश्रेयस सुख के स्वरूप का कुछ दिग्दर्शन भी कराया है। 7. सातवें परिच्छेद में श्रावकों के उन ग्यारह पदों का स्वरूप दिया है जिन्हें प्रतिमा भी कहते हैं । उनमें उत्तरोत्तर प्रतिमाओं के गुण पूर्व की प्रतिमाओं के संपूर्ण गुणों को लिये हुए होते हैं और इस तरह क्रमशः विवृद्ध होकर तिष्ठते हैं। इन प्रतिमाओं में प्रत्येक प्रतिमाधारी का स्वरूप बताया है। करने योग्य व न करने योग्य आचरण की व्याख्या भी मोक्ष - महल में जाने के लिए ये क्रमश: सीढ़ियां हैं। प्रतिमाओं में वृद्धि करते हुए उत्तरोत्तर ग्यारहवीं प्रतिमा में पहुंच जाता है। रत्नकरंड के निम्न पद में उपसंहाररूप में आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन रत्नों की पिटारी बना लेने की प्रेरणा दी है और उसका फल तीनों लोकों में सब अर्थों की सिद्धि बताया है येन स्वयं वीतकलंकविद्या- दृष्टिक्रिया रत्नकरंडभावम् । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषुविष्टपेषु ||1491 रत्नकरंड श्रावकाचार स्वामी समंतभद्र की मौलिक एवं प्रौढ़ साहित्य की प्रामाणिक कृति है । श्रावकचार धार्मिक दृष्टि से लिखा गया है और उसके द्वारा सामान्य लोगों को धर्म का ज्ञान कराना इष्ट है। अतः श्रावकाचार श्रद्धाप्रधान श्रावकों के धर्म का प्रतिपादक ग्रंथ है। सारांशतः इस ग्रंथ में श्रावकों के अनुष्ठान धर्म का जो वर्णन दिया है वह बड़ा ही हृदयग्राही, समीचीन, सुखमूलक और प्रामाणिक है । इसलिये प्रत्येक गृहस्थ को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, इस ग्रंथ का अध्ययन-मनन करना चाहिए। इसके
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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