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________________ 58 जैन विद्या 18 ने सर्वज्ञ की सत्ता के पक्ष में तर्क दिया है कि सर्वज्ञ के बाधक प्रमाणों का अभाव सुनिश्चित होने से सर्वज्ञ की सत्ता में कोई सन्देह नहीं है। किसी वस्तु की सत्ता सिद्ध करने के लिए यही 'बाधकाभाव' स्वयं एक बलवान साधक प्रमाण है, जैसे 'मैं सुखी हूँ' यहाँ सुख का साधक प्रमाण यही है कि मेरे सुखी होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है और सर्वज्ञ की सत्ता में भी कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अतः उसकी सत्ता है। 8. विद्यानन्द ने तर्क दिया कि आत्मा का स्वभाव जानने का है और जानने में जब कोई प्रतिबन्धक न रहे तब वह ज्ञेय पदार्थों से अज्ञ कैसे रह सकता है ? जैसे अग्नि का स्वभाव जलाने का है तो कोई प्रतिबन्धक न रहने पर वह जलनेवाले पदार्थ को जलायेगी ही। उसी प्रकार ज्ञान-स्वभाव आत्मा के प्रतिबन्धक के अभाव में वह समस्त पदार्थों को जानेगा ही । प्रभाचन्द्र के अनुसार, कोई आत्मा सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार करनेवाला है, क्योंकि उसका स्वभाव उनको ग्रहण करने का है और जब ज्ञान के प्रतिबन्धक सभी कारण नष्ट हो जाते हैं तब आत्मा सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है। अनन्तवीर्य ने सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध करने के लिए 'अनुमान प्रमाण' का प्रयोग किया है। अनन्तवीर्य के अनुसार सर्वज्ञ की सत्ता का ग्राहक अनुमान प्रमाण है, जो इस प्रकार है - कोई पुरुष समस्त पदार्थों का साक्षात करनेवाला है— प्रतिज्ञा, क्योंकि उन पदार्थों का ग्रहण-स्वभावी होकर प्रक्षीण प्रतिबन्ध ज्ञानवाला है— हेतु, जो जिसका ग्रहण स्वभावी होकर के प्रक्षीण प्रतिबन्ध ज्ञानवाला होता है वह उस पदार्थ का साक्षात्क होता है जैसे तिमिर से रहित नेत्र 'रूप' का साक्षात्कारी होता है— उदाहरण, उन पदार्थों का ग्रहण स्वभावी होकर प्रक्षीण प्रतिबन्ध ज्ञानवाला है— उपनय । यहां अनुमान प्रयोग में चार अवयवों का ही प्रयोग किया गया है। 'आगम' से तात्पर्य है भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त पदार्थों का एवं उनकी समस्त पर्यायों अर्थात् अवस्थाओं का और समस्त जीवों के हित-अहित का ज्ञान । 9. 'ईश' से तात्पर्य है सच्चा देव अथवा उपदेष्टा । 10. स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ||6|| - आप्तमीमांसा 12, प्रताप नगर, शास्त्री नगर, जयपुर 16 -
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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