________________
जैनविद्या 18
'आगम का ईश' से तात्पर्य है जो भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त पदार्थों के समस्त पर्यायों अर्थात् अवस्थाओं का और समस्त जीवों के हित-अहित का ज्ञाता है तथा उनका उपदेश करता है, अर्थात् जो जीवों को सभी दुःखों से सदैव के लिए छुटकारा पाने का मार्ग बतलाता है वह आगम का ईश' है। स्पष्ट है आगम का ईश' वही हो सकता है जो सर्वज्ञ और वीतरागी हो। बिना सर्वज्ञता एवं वीतरागता के कोई न तो जीवों के हित-अहित का ज्ञाता हो सकता है और न उनका उपदेष्टा।
उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि 'वीतरागता', 'सर्वज्ञता' और 'आगम का ईश'- ये 'आप्त' की तीन प्रमुख विशेषताएं हैं। जिस व्यक्ति-विशेष में ये तीनों विशेषताएं हों वही 'आप्त' है। इन तीनों विशेषताओं से युक्त व्यक्ति है, अर्थात् वीतरागी, सर्वज्ञ और आगम का ईश की सत्ता, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, प्रमाणसिद्ध है। अतः ‘आप्त' की सत्ता है। किन्तु प्रश्न है कि सामान्यजन,अल्पज्ञ यह कैसे निर्धारित करें कि अमुक व्यक्ति ही आप्त' है ? प्रत्युत्तर में समन्तभद्र के अनुसार युक्ति और प्रमाण के द्वारा यह निर्धारित करना चाहिए, अर्थात् जिसके उपदेश युक्तियुक्त, प्रमाण से अबाधित और विरोधरहित हों इसे ही सामान्यजन आप्त' समझें। इसके विपरीत जिसके उपदेश तर्कसंगत न हों, किसी प्रमाण से बाधित हों और उनमें विरोध हो तब उसे आप्त' नहीं माने।
1. यहां 'आप्त' शब्द को 'आप्त-पुरुष' के अर्थ में लिया गया है। 2. तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः।
सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥3॥ -आप्तमीमांसा 3. आप्तेनोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।5।। -रत्नकरण्ड श्रावकाचार 4. अकलंकदेव के अनुसार जो जिस विषय में अविसंवादक है वह उस विषय में 'आप्त' है। आप्तता
के लिए तद्विषयक ज्ञान और उस विषय में अविसंवादकता अनिवार्य है। -यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः, ततः परोऽनाप्तः । तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः, तदर्थज्ञानात् ।
-अष्टशती - अष्टसहस्री, पृ. 236, आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका में उद्धृत, पृ. 1 5. क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः।
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ।।6।। -रत्नकरण्ड श्रावकाचार 6. दोषावरणयोर्हानिर्निश्शेषास्त्यतिशायनात्।
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥4॥ -आप्तमीमांसा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ संस्थितिः ।।5।। -वही अन्य जैन दार्शनिकों ने भी सर्वज्ञ' की सत्ता सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण दिये हैं। अकलंकदेव