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________________ जैनविद्या 18 चूर्णि ।।, यस्यैवं विधावादारंभसंरभ विजृभिताभिव्यक्तस्सूक्तयः । ___साथ ही पृष्ठ एक पर अंकित ‘पूर्व पाटलि पुत्र मध्य ------' इत्यादि श्लोक भी अंकित है तथा 'विक्रान्त कौरव' की प्रशस्ति में उल्लिखित अवटुतरमरति ------' इत्यादि श्लोक भी उत्कीर्णित है। तिरुमकूउलुन रसीपुर ताल्लुके के शक सं. 1105 तदनुसार 1183 ई. के शिलालेख में उत्कीर्णित है कि स्वामी समन्तभद्र ने वाराणसी के राजा के आगे विपक्षियों को पराजित किया था - समन्तद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः। वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः ॥16॥ ई. सन् 1077 तदनुसार शक सं. 999 में शिमोगा जिले नगर तालुके में हमच स्थान से मिले एक बड़े कनड़ी शिलालेख में स्वामी समन्तभद्राचार्य को कालिकाल गणधर' और शास्त्रकार' विशेषणों से अलंकृत किया है। यथा - इत्त कलिकालवर्त्तनेयिं गणभेदं पुहिदुद् अवर अन्वयक्रमदिंकलिकाल गणधरूं शास्त्रकर्तुमलुम एनिसिद समन्तभद्रस्वामिगलु . ---------"।" ___ आचार्य वसुनन्दि ने देवागम की संस्कृत टीका में स्वामी समन्तभद्र को 'त्रिभुवनलब्धजयपताक' 'प्रमाणनयचक्षु' और 'स्याद्वाद शरीर', 'तार्किक चूडामणि' - जैसे विशेषणों से अलंकृत किया है। साहित्य में चित्रकाव्य की रचना कोई विशिष्ट काव्य-कौशल का ज्ञाता मनीषी ही कर सकता है जो अद्भुत व्याकरण-पाण्डित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्य से युक्त सशक्त लेखनी का धनी हो । स्वामी समन्तभद्राचार्य ऐसी ही अद्भुत प्रतिभा के धनी थे तभी वे 'स्तुतिविद्या' जैसी सशक्त शब्दालंकार और चित्रालंकारों से युक्त रचना का प्रस्रवण कर सके। संस्कृत साहित्य के इतिहास में ऐसे प्रतिभा-सम्पन्न मनीषी कुछ विरले ही, अंगुलियों पर गिनने लायक हैं। ऐसा लगता है कि चित्रकाव्य के सर्वप्रथम स्रष्टा स्वामी समन्तभद्राचार्य ही रहे हों। इनसे पूर्व ऐसी विशिष्ट चित्रकाव्यात्मक कृति कतई दृष्टिगोचर नहीं होती है। सम्भवतः चित्रकाव्य की यह सबसे पहली ही रचना हो । इस रचना के निम्न अंतिम पद्य में आचार्य श्री ने जहां देवाधिदेव भगवान जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए स्व-पर-कल्याण की कामना की है वहीं चित्रालंकार के रूप में छ: आरों तथा दशवलयों से युक्त चक्रवृत्त के रूप में परिवर्तित करने पर इसमें से इस रचना का नाम जिन: स्तुतिशतं' तथा इसके कर्ता शान्ति वर्मकृतं' से नाम भी ध्वनित होता है तथा मूलगर्भ स्थान में 'म' एक ऐसा अक्षर फिट होता है जो सारे पद्य के तीनों चरणों के मध्य में निबद्ध हो जाता है, (खुलासा के लिए परिशिष्ट 'स' पर चक्रवृत्त देखिए) पद्य निम्न प्रकार है - गत्वैकस्तुतमेव वासमधुना तं येच्युतं स्वीशते यन्नत्यैति सुशर्म पूर्णमधिकां शान्तिं वजित्वाध्वना। यद्भक्त्या शमिताकृशाघमरुजं तिष्ठेजन: स्वालये, ये सद्भोगकदायतीव यजते ते मे जिनाः सुश्रिये ॥११६।।
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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