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जैनविद्या 18
कर महाव्रतादि के अनुष्ठान और कषायों तथा इन्द्रियों के जय का उपदेश दिया। अहिंसा का अभय दान दिया। वे बहुगुण-सम्पत्ति से युक्त हैं, पूर्ण हैं, और सब ओर से भद्र-समन्तभद्र हैं, आदि ।
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भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग का समन्वय स्वयंभूस्तोत्र स्तुतिपरक भक्तिप्रधान रचना है । संसार- दुःख का मूल 'मोह' अर्थात् दृष्टि विकार है जिसके कारण आत्मानुभूति नहीं हो पाती। मोह-क्षय हेतु स्वामी समन्तभद्र ने तीर्थंकर भक्ति का सहारा लिया । उन्होंने कहा कि भगवान, आप पुण्य-कीर्ति मुनीन्द्र का नाम - कीर्तन भी हमारी आत्मा को पवित्र करता है इसलिये हम आपके गुणों का स्मरण करते हैं। (श्लोक 87 ) । जिनेन्द्र के पुण्य-गुणों का स्मरण - कीर्तन आत्मा की पाप परिणति को छुड़ाकर उसे पवित्र करता है (श्लोक 57 ) । स्वामी समन्तभद्र ने गाथा 114 में 'सुश्रद्धा' शब्द का उपयोग किया है। उनके अनुसार प्रभु भक्ति में लक्ष्य-शुद्धि एवं भाव-शुद्धि पर दृष्टि रखना आवश्यक है, जिसका सम्बन्ध विवेक से हैं । विवेक की भक्ति ही सदभक्ति है। जहाँ दृष्टि-विवेक लक्ष्यभ्रष्ट हुआ वहीं भक्ति की शक्ति अनंत संसारमार्गी हो जाती है ।
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जिन - भक्ति का आधार ज्ञान- योग है, जिसका लक्ष्य आत्मज्ञान है। आत्मा के क्षितिज पर ज्ञानसूर्य के उदय से मोह का अंधकार एवं कषायों की सबलता मिटती है। आत्मा ने अनादिकाल से शरीर, मनोभाव, संसार के जीवों एवं वस्तुओं तथा शुभ-अशुभ भावों से अपनत्व के सम्बन्ध जोड़ रखे हैं । इनके सम्बन्धों का सही ज्ञान प्राप्तकर अपने ज्ञान स्वभाव से ज्ञान का ज्ञान से जुड़ना / रमना ही ज्ञानयोग का कार्य है । यह भेद-विज्ञान द्वारा एकान्तिक दृष्टि एवं दुर्नयों के परिहार से ही सम्भव है।
मोक्ष के इच्छुक को मुमुक्षु कहते हैं। भक्तियोग और ज्ञानयोग के आश्रय से ही कोई मुमुक्षु बन सकता है। मुमुक्षु होने से कर्मयोग का प्रारम्भ होता है । कर्मयोगी ज्ञानस्वरूप आत्मा में मन-वचन-का द्वारा स्व-प्रवृत्त होता है और अपने से भिन्न हिंसादि पाप प्रणालियों से निवृत्त होता है । स्व-प्रवृति से पर -. निवृत्ति स्वतः हो जाती है । स्व-प्रवृत्ति ही चारित्र है । शुद्ध स्व-प्रवृत्त आत्मा परमब्रह्म या 'जिन श्री ' कहलाते हैं जो निज श्री के ज्ञान-ध्यान से ही सम्भव है । स्वामी समन्तभद्र ने अपनी रचनाओं में इन तीन योगों क़ा मार्मिक-सटीक-परीक्षाप्रधानी वर्णनकर उनके मध्य सुन्दर समन्वय स्थापित किया है।
5. रत्नकरण्ड श्रावकाचार
यह स्वामी समन्तभद्र की आचार - दर्शक महत्वपूर्ण रचना है जिसे समीचीन धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। इसमें धर्म, धर्म की प्राप्ति का उपाय तथा धार्मिक व्यक्ति, गृह एवं साधु के अंतर - बाह्य स्वरूप का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। मुमुक्षु श्रावकों के आचरण को दर्शाने एवं उनकी परीक्षा करने का यह प्रामाणिक आधार प्रस्तुत करता है। आत्मा के प्रति दृष्टि-विकार एवं चारित्र - विकार को दूरकर आत्मसुख उपलब्ध कराना ही इसका उद्देश्य है। इस रचना में 150 श्लोक हैं जो सात अध्यायों में विभक्त हैं ।
सभी जीव सुख चाहते हैं । धर्म सुख का साधन है । समीचीन ( यथार्थ ) धर्म संसार के जीवों को दुख- समूह से निकालकर उत्तम सुख प्रदान करता है ( श्लोक 2 ) । सदृष्टि, सद्ज्ञान और सद्वृत्त अर्थात् आत्म-श्रद्धान, आत्म-ज्ञान और आत्म-रमणता ही धर्म है। (श्लोक 3 ) । इसके विपरीत अधर्म है। इस प्रकार धर्म का आधार सदृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन है। अध्यात्म विषय के आप्त (देव), आगम (शास्त्र)