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________________ जैनविद्या 18 3. स्तुतिविद्या इसे जिनशतक भी कहते हैं। इसमें भक्ति-भरे अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा के 116 श्लोक हैं जिनमें चौबीस तीर्थंकरों की भावभरी स्तुति की गयी है। इस रचना का उद्देश्य 'आगसां जये' अर्थात् पापों को जीतना है। स्वामी समन्तभद्र की यह रचना अद्भुत काव्य कौशल, असाधारण काव्य पांडित्य एवं अद्वितीय शब्दाधिपत्य की सूचक है। यह चित्रालंकार एवं शब्दालंकार के अद्भुत एवं विस्मयकारी प्रयोगों से अलंकृत है। इसके अनेक श्लोक मुरजबंध चित्राकृतियुक्त हैं। श्लोक क्रमांक 51, 52, 55 एवं 85 का निर्माण दो-दो व्यंजन अक्षरों से हुआ है। चौदहवें श्लोक का प्रत्येक पाद क्रमशः य, न, म, त के एकएक अक्षर से बना है। इसी प्रकार 13 वां श्लोक ततोतिता तुं त तीत' ऐसा है जिसका निर्माण केवल 'त' अक्षर से हुआ है। तीर्थंकरों के पुण्य-गुणों का स्मरण आत्मा से पापमल को दूर करके उसे पवित्र बनाता है। यह तभी होता है जब स्तुति भावपूर्ण हो और स्तुतिकर्ता तीर्थंकरों के गुणों की अपने में अनुभूति करता हुआ उनमें अनुरागी होकर तप होने का प्रयास करे। ऐसा होने पर पाप प्रकृतियों का रस सूखता है और पुण्य प्रकृतियों का रस (अनुभाग) बढ़ता है। तथा अंतराय कर्मरूप पाप-मूलक प्रकृति निर्बल होकर लौकिक प्रयोजन सिद्ध होने में बाधक नहीं हो पाती। 4. स्वयंभू स्तोत्र ___ इसे समन्तभद्र स्तोत्र भी कहते हैं। इसमें 143 श्लोक हैं जिनमें विद्यमान चौबीस तीर्थंकरों की भक्तिपरक स्तुति के माध्यम से उनसे सम्बन्धित ऐतिहासिक बातों के उल्लेख के साथ जैन दर्शन के तत्वों एवं सिद्धान्तों तथा धार्मिक शिक्षा का मार्मिक वर्णन किया गया है। इस कृति में स्वामी समन्तभद्र ने भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की त्रिवेणी का अद्भुत संगम प्रस्तुत किया है जिसके अवगाहन से ज्ञानानंद/आत्मानन्द की सहज शांतिपूर्ण अनुभूति होती है। प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति के साथ जैन तत्व के किसी न किसी पक्ष के रहस्य को रोचकतापूर्वक स्पष्ट कर तीर्थंकरों के गुणानुवाद में नये-नये विशेषणों का प्रयोग किया है। इससे रचनाकार की कल्पना एवं सृजन शक्ति का प्रमाण मिलता है। शब्द-चयन और शब्द-अर्थ-रचना की सटीक छटा सर्वत्र देखने को मिलती है। इसके कुछ उदाहरण उल्लेखनीय हैं जैसेअभिनन्दन-जिन ने लौकिक-वधू का त्यागकर क्षमा सखीवाली दया-वधू को अपने आश्रय में लिया। चन्द्रप्रभ-जिन ने शरीर के दिव्य प्रभामण्डल से बाह्य अंधकार और ध्यान-प्रदीप के अतिशय से मानसअंधकार दूर किया। शांतिनाथ-जिन ने समाधि-चक्र से दुर्जय मोह-चक्र को जीता, उनके चक्रवर्ती राजा होने पर राज-चक्र, मुनि होने पर दया-दीधिति-चक्र, पूज्य (तीर्थ-प्रवर्तक) होने पर देव-चक्र प्रकट हुआ। ध्यानोन्मुख होने पर कृतान्त-चक्र, कर्मों का अवशिष्ट समूह नाश को प्राप्त हुआ। मुनिसुव्रत जिन का यह कथन कि चर-अचर त्रिगत प्रतिक्षण स्थिति जनन-निरोध लक्षण को लिये हुए है - सर्वज्ञता का द्योतक है। उन्होंने योगबल से कर्मकलंक भस्मकर परम अतीन्द्रिय-मोक्ष सौख्य प्राप्त किया था। नमि-जिन ने परम करुणा भाव से अहिंसा परम ब्रह्म की सिद्धि के लिए समस्त अंतर-बाह्य परिग्रह का त्याग कर दिया था, क्योंकि जहां अणुमात्र भी आरम्भ परिग्रह होता है, वहां अहिंसा का वास नहीं होता अथवा पूर्णता का वास नहीं होता। पार्श्वनाथ-जिन महामना थे, वे वैरी के वशवर्ती उपद्रवों से अचलायमान रहे। महावीर-जिन का स्यादवादरूप प्रवचन दृष्ट और इष्ट के साथ विरोध न रखने के कारण निर्दोष है। उन्होंने निष्कपट सम और
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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