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________________ जैनविद्या 18 101 अन्य दैव की आवश्यकता होगी, इस प्रकार अनवस्था तो होगी ही, मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। ऐसी अवस्था में मोक्ष के लिए अथवा अन्य किसी कार्य के लिए पुरुषार्थ व्यर्थ ही सिद्ध होगा। अत: पूर्व कर्म अथवा योग्यता दैव है जो अदृष्ट है और इस लोक में किया गया प्रयत्न पुरुषार्थ है, जो दृष्ट है। इन दोनों के सहयोग से ही प्रयोजन की सिद्धि होती है, इन दोनों में से एक के भी अभाव में प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती।' पुरुषार्थवादी चार्वाक आदि के मत का निराकरण करते हुए वे कहते हैं - केवल पुरुषार्थ से ही सब कार्य सिद्ध नहीं हो सकते । पुरुषार्थ भी दैव (पुण्यपापरूपकारण सामग्री) के अनुसार ही फलित होता है। 'तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसयश्च तादृश: सहायास्तादृशः सन्ति यादृशी भवितव्यता'- ऐसी लोक में भी प्रसिद्धि है। यदि यह मान लिया जाय कि बुद्धि, व्यवसाय आदि पुरुषार्थ भी पुरुषार्थ से ही होते हैं तो सभी का पुरुषार्थ सदैव सफल होना चाहिये और समान पुरुषार्थ से सबको समान फल मिलना चाहिए किन्तु ऐसा नहीं होता। एक व्यक्ति कठिन परिश्रम करने पर भी कृषि आदि कार्यों में सफल नहीं होता और दूसरा व्यक्ति बिना प्रयत्न के अथवा कम प्रयत्न करके भी सफल होते देखा जाता है। कुशाग्र बुद्धिवाला व्यक्ति अल्पकाल में कम प्रयत्न करके भी प्रकाण्ड विद्वान हो जाता है, जबकि मन्दबुद्धि दीर्घकाल तक अथक प्रयत्न करने पर भी अल्पज्ञ ही रह जाता है। कुछ मीमांसकों का मत है कि स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति दैव से होती है और कृषि आदि कार्य पुरुषार्थ से सफल होते हैं। अत: कहीं एकान्तरूप से दैव ही कार्यसिद्धि में सहायक है और कहीं एकमात्र पुरुषार्थ । आचार्य समन्तभद्र उनके इस कथन का विरोध करते हुए कहते हैं कि स्याद्वादनय से द्वेष रखनेवाले एकान्तवादियों का यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि लोक में इसके विरुद्ध भी देखा जाता है। ____ अन्त में स्याद्वादनीति का अनुसरण करते हुए वे कहते हैं - अबुद्धिपूर्वक किये गये कार्य से जो इष्टानिष्ट की प्राप्ति होती है वहां दैव की प्रधानता है और पुरुषार्थ की गौणता । जहां बुद्धिपूर्वक किये हुए कार्यों से इष्टानिष्ट की प्राप्ति होती है, वहां पुरुषार्थ की प्रधानता है और दैव की गौणता। दैव तथा पुरुषार्थ दोनों में से किसी एक के बिना कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरा सफल नहीं हो सकता। नेता यस्य बृहस्पति: प्रहरणं वज्रं सुरा सैनिकाः । स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरैरावणो वारणः । इत्याश्चर्यव लान्वितोऽपि वलभिद्भग्नः परैः संगरे, तद् व्यक्तं खलु दैवमेव शरणं धिधिग्वृथा पौरुषम् ॥82॥ भतृहरि, नीतिशतक गजभुजंगमयोरपि बन्धनम् शशि दिवाकरयोर्गहपीडनम् । मतिमतां च विलोक्य दरिद्रताम् : विधिरहो बलवानिति में मति : ।।86॥ -वही
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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