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________________ 100 राजा भर्तृहरि नीतिशतक में दैव की प्रभुता प्रदर्शित करते हुए कहते जिस इन्द्र का शिक्षक देवगुरु बृहस्पति था, वज्र जैसा जिसका शस्त्र था, देवगण जिसके सैनिक थे, स्वर्ग जिसका दुर्ग था, विष्णु का जिस पर अनुग्रह था, जिसका प्रधान गज दिग्गजेन्द्र था इस प्रकार की असाधारण शक्ति से सम्पन्न इन्द्र भी संग्राम में दानवों के द्वारा पराजित कर दिया गया । अत: केवल दैव ही रक्षक है, शरण है, पुरुषार्थ वृथा है उसे धिक्कार है' । विधि की बलवत्ता सिद्ध करते हुए वे पुन: कहते हैं - जैन विद्या 18 - सर्प तथा हाथी जैसे बलशाली का बन्धन में बाँधा जाना, सूर्य तथा चन्द्रमा जैसे तेजस्वियों का राहु द्वारा ग्रसा जाना और विद्वानों की दरिद्रता को देखकर यही कहना पड़ता है कि सर्वत्र भाग्य ही बलवान है, पुरुषार्थ कुछ नहीं है'। वे कहते हैं- 'न तो मनुष्य की आकृति ही फल देती है, न कुल, न शील, न विद्या से सफलता मिलती है, न सेवा से, अपितु पूर्वकाल के तप से सञ्चित भाग्य ही समय पर फल देता है'। जिस मनुष् पूर्वकाल का पुण्य (भाग्य) प्रबल होता है, उसके लिए भयानक जंगल भी प्रधान नगर बन जाता है, भ लोग उसके अनुकूल हो जाते हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी उसके लिए विशाल निधि एवं रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है' । - पौरुषवादी चार्वाक आदि दैव को व्यर्थ सिद्ध करते हुए केवल पुरुषार्थ को ही सफलता का कारण मानते हैं। वे कहते हैं- - 'केवल पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि होती है। सिंह जैसे बलवान पशुराज को भी प्रयत्न से ही अपनी क्षुधा - शान्ति के लिए पशु प्राप्त करना पड़ता है। सोते हुए सिंह के मुख में स्वयं पशु प्रवेश नहीं करते । उद्योगी व्यक्ति ही लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है, भाग्य से ही सब कुछ मिलता है, ऐसा कायर व्यक्तियों का कथन है । अत: भाग्य पर आश्रित न रहकर पुरुषार्थ करना ही श्रेयस्कर है। जिन शासन में दैव तथा पुरुषार्थ दोनों को महत्व दिया गया है। जहां पुरुषार्थ के बिना ही इष्टानिष्ट प्राप्ति होती है वहां की प्रधानता और पुरुषार्थ की गौणता है; जहां पुरुषार्थ से ही इष्टानिष्ट की प्राप्ति होती है वहां पुरुषार्थ की प्रधानता है और देव की गौणता । यद्यपि दैव और पुरुषार्थ दोनों में से एक के भी अभाव में कार्य सिद्धि नहीं होती, तो भी पुरुषार्थ को अधिक महत्व दिया गया है। क्योंकि दैव भी पूर्वकृत पुरुषार्थ का ही फल है। कठिन पुरुषार्थ से दैव की शक्ति को क्षीण किया जा सकता है। दैववश दुर्घटनाओं घटित होते समय मनुष्य विवेक तथा पुरुषार्थ से काम नहीं लेता तो दैव विजयी हो जाता है। और यह लिया जाता है कि होनहार बलवान है। इसके विपरीत पुरुषार्थी व्यक्ति अन्धविश्वास को त्यागकर विश्वास को जागृतकर उत्थान की ओर अग्रसर होता हुआ उन्नति के चरम सोपान पर पहुंच जाता है। श्रुतधराचार्य स्वामी समन्तभद्र ने भगवान महावीर की वाणी के अनुसार स्याद्वादनय को अपनाते हुए दैव और पुरुषार्थ दोनों के महत्व को स्वीकार किया है । वे दैववादी मीमांसक आदि के मा निराकरण करते हुए कहते हैं - केवल दैव से ही कार्यसिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि दैववादी भी अच्छे-बुरे आचरणरूपी पुरुषार्थ को ही दैव का कारण मानते हैं । यदि सभी कार्य दैव से ही सिद्ध हो जाते तो दैव लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता न होती । यदि दैव से ही दैव की उत्पत्ति मानी जाय तो पुनः उस दैव के लिए
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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