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जैनविद्या 14-15
1.12
मण वयण काय मा कोइ जणु । पोडवहि होहि दयलीण मणु । इय सुणिउ ण किं जण - जंपणउ । सुह दीणउ लब्भइ अप्पणउ ।। तो अवरहं देहि ण दुक्खु तुहु । जिम अप्पुणु पावहि परम सुहु । किज्जइ णिसिभोयणु परिहरणु । णिसिभोयणु वहु जीवह-मरणु ॥ पीवरि कप्पडि जलु गालियइ । सो कप्पडु पुणु जलि खालियइ । रक्खियइ पयत्ते जीवगणु। तह ढिल्ल ण किन्जइ एक्कु खणु ॥ जूआ खेल्लणु वेसारमणु। परिहरि तह पारिद्धि गमणु ॥ णवणीउ कया वि ण भुंजियइ । कुसुमाइं कंद-गणु वज्जियई ।। इय वहुविह भावहि भयरहिउ । जं जिह आगम जुत्तिहि कहिउ ।। तं तिह पालिज्जइ खमिय मउ । सिवहेउ अहिंसा - देसवउ ॥
घत्ता - मिच्छत्त - विणासणु, पाव - पणासणु, णिच्चाराहिय जिणवयणु ।
संसार विरत्तउ, दिढ सम्मत्तउ, धरइ अहिंसा - वय रयणु ॥ 12॥
1.13
सुणि एवहि वउ वीयउ सुच्चइ । वयणु असच्चु कयावि ण वुच्चइ ॥ जं अणहु तउ किंपि भविज्जइ । वयणु असच्चउ किंपि मुणिज्जइ । कूडउ कउ सक्खु वि ण वविज्जउ । चडिवि पमाणि ण अलिउ कहेव्वउ ।। कोह - माण-माया - लोहारसु । चवइ असच्चु कयाय परव्वसु । जो ण कसायह अप्पु समप्पइ । सो ण कयावि असच्चउजंपइ ।। जं किर सुच्चु वि परपीडायरु । तं ण पयंपइ वय विहि आयरु ॥ करि चाडत्तणु परु णिहणंतह । णरयगमणु सच्चु वि पभणंतह ।। जं पर दोसु गुज्झु भासिज्जइ । त ण वि परय - णयरु वासिज्जइ । केण वि सरिसउ जुज्झु ण किज्जइ । तहिव गालि कोसणउ ण दिज्जइ । काणउ कुंढउ दुव्बलु णडियलु । जणु ण हसिज्जइ अक्खुडि पडियउ ।।
पत्ता - सव्वह जीवह हिउ, वोलिज्जइ पिउ, जं जण सवण सुहावणउ ।
विप्पिउ कडु अक्खरु, कक्कसु, णिठुरु, भासिज्जइ ण भयावणउ ।। 13॥