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________________ जैनविद्या 14-15 1.10 (स्वकर्म फल- चिन्तन ) हे जीव ! भव-भ्रमण पर विजय करानेवाला, अविचल सुखकारी, शुभ रत्नस्वरूप जिनेन्द्रवचन सुनो, यदि किसी के द्वारा तुम घेरे गये, बाँधे गये, पीटे गये, (तुम्हारा ) उपहास किया गया। पुत्र, भाई, माता-पिता का विछोह किया गया, यदि किसी के द्वारा परजीवी कहा गया, दूर हटाये गये, दण्डित किये गये, झुकाये गये, यदि सम्मान भंग करके तुम दबाये गये, वैरी के द्वारा ढोकर ले जाये जाने पर कारणसहित या अकारण राजा के मारने पर इत्यादि महा आपत्तियाँ पाकर तथा ऐसे ही अन्य दुःखों से संतप्त होकर मन की शुचिता से क्रोध किये बिना बन्धन में पड़े शत्रु को माता के समान विचारो माता के मारने में जो उद्यम करता है उसके ऊपर (भी) मन में क्रोध मत धारण करो। तुम यह सब पूर्वोपार्जित अपने पापों का फल शत्रु के बहाने भोगते हो। स्वयं कर्म करके किस पर क्रोध करता है ? अच्छा और बुरा तुम कर्मवश पाते हो । , 91 घत्ता • इस प्रकार हृदय में जानकर (और) क्रोध का विनाश कर परोत्पन्न दुःखों को यदि क्षमा करता है तो सौजन्यता पाकर (और) कर्म जलाकर शाश्वत शिव-सुख में रमता है ।101 1.11 ( उत्तम क्षमा माहात्म्य) किसी के भी साथ वैर हृदय में मत रखो। अनुपकारी का उपकार करो। जिनेन्द्र जिसे धर्म का मूल कहते हैं वह उत्तम क्षमा है, संशय नहीं । जीव दया क्षमा के बिना प्राप्त नहीं होती । उस क्षमा के अभाव में राजा भी नरक गया - ऐसा विचार कर उत्तम क्षमा करो और चिरसंचित पापों की निर्जरा करो । पश्चात् तुम और कर्मों का अर्जन न करो, भव-दुःखों को त्यागो और सुख पाओ। दूसरों के द्वारा दुःखी होते हुए (भी) यदि आबद्ध वैरियों को क्षमा करके छोड़ते हो तथा यदि और अशुभ कर्म अर्जित करते हो (तो) उनके फलस्वरूप दुःख का अनुभव करते हो । अन्य जन्मान्तर में कुगति पाते हो और भव-भव में निरन्तर दुःखी होते हो । अतः श्रेष्ठ निर्मल क्षमा से उद्धार करो (और) पाप-वृक्ष की जड़ का छेदन करो। मनुष्य क्रोधाग्नि से संतप्त होते हैं (और) उत्तम क्षमारूपी नीर से परम शीतल होते हैं । घत्ता इसके विपरीत आचरण से दुर्मति जीवों के परम्परा से दुःख होता है । 11। - - संसार असार है, बहुत दुःखों का बोझा है। इससे निर्गमन इसी प्रकार होता है ।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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