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________________ जैनविद्या 14-15 लोहाचार्य - ये चार आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक तथा शेष अंगों और पूर्वो के एक देश के धारक हुए। इसके बाद आचार्य-परम्परा से आता हुआ सभी अंगों एवं पूर्वो का एकदेश ज्ञान आचार्य धरसेन को प्राप्त हुआ। वे अष्टांग महानिमित्त के पारगामी थे और सौराष्ट्र की गिरिनगर की चन्द्रगुफा में रहते थे। इस प्रकार महावीर के निर्वाण के पश्चात् 683 वर्ष तक क्रमशः क्षीण होते हुए अंगज्ञान परिपाटी-क्रम में प्रचलित रहा और इसके बाद अंगज्ञान की परम्परा का विच्छेद हो गया। श्रुतावतरण आचार्य धरसेन ने अंग श्रुत के लोप होने से बचाने हेतु आंध्रप्रदेश में सम्पन्न हो रहे आचार्यसम्मेलन में अनुरोध भेजा कि शास्त्र-अर्थ को ग्रहण करने में समर्थ योग्य साधुओं को उनके पास भेजें। तद्नुसार प्रतिभासम्पन्न आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने आचार्य धरसेन से जीव की स्वतंत्रता एवं महाकर्म-प्रकृति-प्राभृत का ज्ञान प्राप्तकर प्राकृत भाषा में 'षट्खंडागम' नामक महान सिद्धान्त ग्रंथ की सूत्र-रचना ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी - 'श्रुतपंचमी' को सम्पन्न की। आचार्य पुष्पदन्त ने सत्प्ररूपणा के बीस अधिकारों की सूत्र-रचना की।आचार्य भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम अर्थात् संख्या प्ररूपणा से लेकर महाबंध तक शेष ग्रंथ की रचना की । यह महाबंध जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बन्धस्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध इन छह खण्डों में विभक्त होने के कारण 'षट्खण्डागम' कहलाया। आचार्य धरसेन के समान आचार्य गुणधर को भी सब अंगों और पूर्वो का एकदेश ज्ञान था। वे कषाय-प्राभृत नामक ज्ञान के महासमुद्र के पारगामी विद्वान थे। उन्होंने भी ग्रंथ विच्छेद के भय से 'पेज्जदोसपाहुड' की गाथाबद्ध रचनाकर उसका नाम 'कसाय-पाहुड' दिया। इस पर आचार्य यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्र लिखकर कषाय के रहस्य को प्रकट किया। इस प्रकार ईसा की प्रथम शताब्दी में आचार्य-परम्परा से प्राप्त सर्वज्ञ-ज्ञान के आधार पर करणानुयोग के दो महान् ग्रंथ अर्थात् षट्खंडागम एवं कसायपाहुड रूप प्रथम श्रुत-स्कंध का अवतरण हुआ। इसके पश्चात् ईसा की दूसरी शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय एवं अन्य पाहुड लिखकर द्रव्यानुयोगरूप द्वितीय श्रुत-स्कन्ध का अवतरण किया। जैन साहित्य के ये सभी ग्रंथ आधारभूत एवं मूल ग्रंथ हैं जिन पर परवर्ती आचार्यों ने विषद, व्यापक टीकाग्रन्थों की रचना की। धवला-जयधवला टीका । षट्खंडागम और कसायपाहुड - ये दोनों ग्रंथ कर्म सिद्धान्त को बीजरूप में प्रस्तुत करते हैं। जब तक इनके गूढ़ रहस्यों की व्याख्या सर्वज्ञ-प्रणीत भाव से नहीं की जाये, सामान्य व्यक्ति इसको समझ नहीं सकते। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम की धवला और कषायपाहुड की जयधवला टीका लिखकर की। ये दोनों टीका-ग्रंथ एक प्रकार से स्वतंत्र एवं पूर्ण ग्रंथ हैं, इस कारण आचार्य वीरसेन को उपनिबन्धनकर्ता कहा गया है। जयधवलाप्रशस्ति में "टीकाश्रीवीरसेनीया शेषाः पद्धति-पंजिकाः" (जयधवला, प्र. पद्य 39) अर्थात् वीरसेन की टीका ही यथार्थ टीका है शेष तो पद्धति या पंजिका हैं - कहकर इन टीकाओं को गौरवान्वित
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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