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________________ जैनविद्या 14-15 किया है। ये दोनों टीकाएं लगभग एक लाख श्लोकप्रमाण हैं जो महाभारत के समतुल्य हैं। इस दृष्टि से साहित्य-निर्माण के क्षेत्र में आचार्य वीरसेन का स्थान महाभारतकार के समकक्ष है। एलाचार्य महावीर के धर्म-शासन में गुरु-परम्परा का विशिष्ट स्थान है। सर्वज्ञ-प्रणीत ज्ञान गुरु-परम्परा से ही निर्बाधगति से प्रवाहित होता रहा है। अतः आचार्य वीरसेन के कर्तृत्व को समझने के पूर्व उनके आचार्य गुरु का ज्ञान भी आवश्यक है। इन्द्रनन्दि ने अपने ग्रंथ श्रुतावतार में लिखा है कि आचार्य वप्पदेव के पश्चात् कुछ काल बीत जाने पर चित्रकूट निवासी एलाचार्य हुए। वे सिद्धान्तशास्त्र के रहस्य के ज्ञाता थे। एलाचार्य के पास रहकर वीरसेनाचार्य ने सम्पूर्ण सिद्धान्तों का गूढ़ अध्ययन किया और निबन्धनादि आठ अधिकारों को लिखा (श्रुतावतार, श्लोक 177178),इससे स्पष्ट होता है कि एलाचार्य वीरसेन के विद्यागुरु थे, वे उन्हें "जीव्भमेलाइरियवच्छओं" (जयधवला टीका, पृ. 81) के अनुसार पुत्रवत् स्नेह करते थे। इनका समय 8वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और नवमी शताब्दी का पूर्वार्द्ध है । यद्यपि एलाचार्य ने किसी स्वतंत्र ग्रंथ की रचना नहीं की, फिर भी वे सिद्धान्त-शास्त्र के मर्मज्ञ ज्ञाता, अद्भुत प्रतिभा के धनी, निष्पक्ष-उदारमना, वाचक गुरु थे जो उनके शिष्य वीरसेन के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से स्पष्टरूप से परिलक्षित होता है। वीरसेन स्वामी - आचार्य वीरसेन की प्रतिभा एवं सर्वज्ञतुल्य-ज्ञान का वर्णन शब्द-सीमा से परे है। यदि उनका अवतरण नहीं होता तो स्याद्वादमुद्रित आगम-ज्ञान के रहस्य से कलिकाल-आत्मार्थी वंचित रह जाते। इस तथ्य के महत्त्व को इस बात से समझा जा सकता है कि महाकर्म सिद्धान्त की नय, प्रमाण एवं निक्षेप आचार्य वीरसेन की विशद टीकाएं होते हुए भी एकान्ती-जन उनके भिन्नभिन्न, तर्क-असंगत, आगम प्रतिकूल एवं इतर-धर्म-समर्थक निष्कर्ष निकालकर वीतराग मार्ग को विकृत कर रहे हैं। यदि ये टीकाएं न होतीं तो छद्मज्ञानी धर्मशास्त्र का न जाने कितना अवर्णवाद करते? विचारणीय है। वीरसेन अपने समय के पंचाचारयुक्त श्रेष्ठ आचार्य, आगमसूत्र एवं सिद्धान्तों के ज्ञाता, स्व-पर समय में पारंगत, निर्मल बुद्धि के धारक, निर्भीक, निर्दोष, निराग्रही, सौम्य, निष्कम्प, भयविहीन, सहनशील एवं निर्लेप स्वभाव के थे। वे ज्योतिष के ज्ञाता, छन्दव्याकरण, न्याय एवं प्रमाणशास्त्र के मर्मज्ञ, गणितज्ञ एवं अध्ययनशील प्रकृति के थे। वे निराभिमानी, निश्छल, वीतराग मार्ग के ज्ञाता-अध्येता, अनेकान्त-स्यादवाद मुद्रित महावीरवाणी के उद्घोषक/प्रकाशक, अनेक विद्याओं के पारगामी, सहिष्णु, तत्व-मर्मज्ञ और केवलीतुल्य ज्ञान के धारक थे। जिस प्रकार चक्रवर्ती भरत की आज्ञा छह खण्डों में प्रभावी थी उसी प्रकार वीरसेन का ज्ञान षट्खण्डागम में प्रवर्तमान रहा। उनका हृदय-दर्पण वीतरागता को प्रतिबिम्बित करनेवाला निर्मल-स्वच्छ था। महाकर्म सिद्धान्त के प्रतिपादन में जहाँ उन्होंने सुस्पष्ट आचार्य-परम्परा का पोषण किया वहाँ उन्होंने स्खलित ज्ञान का दृढ़तापूर्वक प्रतिकार भी किया। कहीं ऐसा भी संयोग हुआ जहाँ उन्होंने तर्कसंगत दो विचारधाराओं को यथावत मान्य भी किया। इस संदर्भ में अनिवृतिकरण गुणस्थान में कर्मक्षय विषयक उद्धरण (धवला पु.1, पृष्ठ 217-222) पठनीय है।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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