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________________ जैनविद्या 14-15 नवम्बर 1993 - अप्रेल 1994 69 जैनधर्म के मर्मज्ञ : श्री वीरसेनाचार्य • श्री कन्हैयालाल लोढा जैनधर्म के आचार्यों का मानना है कि भगवान महावीर स्वामी ने जो उपदेश दिया वह उत्पाद-व्यय-ध्रुव इस त्रिपदी में था । उसे गणधरों ने गूँथा और आगमों के रूप में प्रस्तुत किया। गणधर केवलज्ञानी नहीं थे अतः उनके ज्ञान का जितना क्षयोपशम था उसके अनुसार भगवान वाणी के कुछ अंश को प्रस्तुत किया गया। उनका भी अधिकांश भाग कालक्रम में लुप्त हो गया। आगमों का बहुत बड़ा भाग विच्छेद हो गया, बहुत थोड़ा भाग बचा है। जो भाग बचा है उसकी भी मूल में परिभाषा नहीं मिलती, उसके आशय व अर्थ को समझाने के लिए आचार्यों टीकाएँ लिखीं। उनमें प्रत्येक आचार्य ने प्रत्येक सूत्र की अपने ज्ञान के क्षयोपशम के अनुसार व्याख्याएं की। इन व्याख्याओं में आगम के अर्थों के अनेक प्रकार हो गये और आगम-सूत्रों की व्याख्याएं भिन्न-भिन्न हो गईं। जिसमें अनेक विचार - भेद व मतभेद हो गये। यह भिन्नता यहाँ तक बढ़ गई कि उनके आधार पर अनेक सम्प्रदाय बन गये। उन भिन्न-भिन्न मान्यताओं में सत्य को खोजना अत्यधिक कठिन कार्य हो गया। ध्यान, कायोत्सर्ग अंतर्मुखी आदि साधनाओं का क्रियात्मक रूप लुप्त हो जाने से ज्ञान अनुभूतिपरक न रहा, अनेक व्याख्याएं मात्र बौद्धिक व शाब्दिक रह गईं, निष्प्राण हो गईं। उनमें आगम का वास्तविक मर्म कम रह गया, फलतः धर्म के वास्तविक रूप को समझना कठिन हो गया। जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे वास्तविक
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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