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________________ जैनविद्या 14-15 63 __ भव्य जीवों में कुछ जीव 'संज्ञी' होते हैं और कुछ जीव 'असंज्ञी'। जो मन के अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप ग्रहण करता है उसे 'संजी' कहते हैं और जो इन शिक्षा आदि को ग्रहण नहीं करता उसे 'असंज्ञी' संज्ञी जीवों के मिथ्यादृष्टि से क्षीणकषाय-वीतरागछद्मस्थ तक के गुणस्थान होते हैं और असंज्ञी जीवों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान । संज्ञी-असंज्ञी अथवा भव्य-अभव्य जीवों के औदारिक, वैक्रियिक, आहारक और कार्मण, ये चार प्रकार के शरीर होते हैं। इन चार प्रकार के शरीरों में से प्रथम तीन शरीरों की पृष्टि के लिए जीव उन शरीरों के योग्य पुद्गल पिण्डों का ग्रहण करते रहते हैं। जीवों द्वारा उन शरीरों के योग्य अर्थात् औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गल पिण्डों के ग्रहण को 'आहार' कहते हैं । आहार ग्रहण करनेवाले जीवों को 'आहारक' कहते हैं और आहार नहीं ग्रहण करनेवाले जीवों को 'अनाहारक' अर्थात् जो जीव औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गल पिण्डों को ग्रहण करते हैं उन्हें 'आहारक' कहते हैं और जो पुद्गल पिण्डों को ग्रहण नहीं करते हैं उन्हें 'अनाहारक'। आहारक जीवों के प्रथम तेरह गुणस्थान होते हैं अर्थात् आहारक मिथ्यादृष्टि से सयोगिकेवली तक के गुणस्थानों के अन्वेषण-स्थान हैं और अनाहारक, सिद्धों के अतिरिक्त, मिथ्यादृष्टि, सासादन, अविरतसम्यग्दृष्टि, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानों के अन्वेषण-स्थान । अन्त में, संक्षेप में कहा जा सकता है कि जीव की वे पर्याय विशेष अथवा अवस्था विशेष जिनमें अथवा जिनके द्वारा आत्मा के गुणों के विकास की विभिन्न अवस्थाओं अथवा विकास के विभिन्न सोपानों की गवेषणा की जाती है 'मार्गणास्थान' कहलाती हैं। मार्गणास्थान चौदह हैं - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, भव्य, संज्ञी और आहार मार्गणास्थान। इन चौदह मार्गणास्थानों में से गति, इन्द्रिय, काय, दर्शन, भव्य और आहार मार्गणा मिथ्यादृष्टि से अयोगिकेवली तक के गुणस्थानों के अन्वेषणस्थान हैं। योग और लेश्यामार्गणा मिथ्यादृष्टि से सयोगिकेवली तक के गुणस्थानों के अन्वेषणस्थान हैं। वेदमार्गणा मिथ्यादृष्टि से अनिवृत्तिकरण तक के गुणस्थानों का अन्वेषणस्थान है। कषाय मार्गणा मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मसांपरायशुद्धि संयत तक के गुणस्थानों का अन्वेषणस्थान है। ज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टि से अयोगिकेवली तक के गुणस्थानों का अन्वेषणस्थान है । संयममार्गणा प्रमत्तसंयत से अयोगिकेवली तक के गुणस्थानों का अन्वेषणस्थान है। सम्यक्त्व सासादनसम्यग्दृष्टि से अयोगिकेवली तक के गुणस्थानों का अन्वेषणस्थान है और संज्ञीमार्गणा मिथ्यादृष्टि से क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ तक के गुणस्थानों का अन्वेषणस्थान है। ये मार्गणास्थान विभिन्न गुणस्थानों के अन्वेषणस्थान सामान्यरूप में हैं विशेषरूप में नहीं अर्थात् विभिन्न मार्गणास्थानों के उप-भेद उपर्युक्त सामान्य मार्गणास्थान के सभी गुणस्थानों के अन्वेषणस्थान नहीं हैं, वे कुछ विशेष गुणस्थानों के ही अन्वेषणस्थान हैं। मार्गणास्थानों के उपभेद कौन-कौन से गुणस्थानों के अन्वेषणस्थान हैं, इसे एक तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है, जो निम्नलिखित रूप में है -
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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