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________________ महाभारत में है वही अन्यत्र भी है, जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं है। इसी प्रकार जैन वाङ्गमय के समस्त अनुयोग इन कालजयी टीकाओं में अन्तर्निहित हैं। सच पूछिये तो आचार्य वीरसेन जैनशास्त्र के व्यासदेव हैं। धवला एवं जयधवला टीकाओं में श्री वीरसेनाचार्य ने दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों, षट्खण्डागम एवं कषायप्राभृत की गूढतम सामग्री को अभूतपूर्व रूप में प्रस्तुतकर अप्रतिम लोक कल्याण किया। उनकी उक्त टीकाओं में अंकगणितीय संदृष्टियाँ प्राप्त हैं, गणितीय न्याय शब्दों द्वारा अभिव्यक्त है। दिगम्बर जैन परम्परा के इन आगम-ग्रन्थों में कर्म-सिद्धान्त को गणित द्वारा साधा गया है और कर्म-सिद्धान्त के गहनतम परिप्रेक्ष्यों को उद्घाटित करने हेतु न केवल गणितीय न्याय अपितु गणितीय संदृष्टियों का सुन्दरी लिपि की सहायता से गम्भीरतम शोधकार्य किया गया है जिसमें विश्लेषण, संश्लेषण, राशि-सिद्धान्त एवं परमाणु-सिद्धान्त आदि का प्रयोग किया गया है। श्री वीरसेनाचार्य ने उस समय तक सैद्धान्तिक मान्यताओं में आई विकृतियों पर भी आगम के आधार पर प्रहार किया। (क) उन्होंने गोत्रकर्म की परिभाषा करते हुए स्पष्ट लिखा है - गोत्र का सम्बन्ध न ऐश्वर्य से है, न योनि से न जाति, वंश-कुल परम्परा से है। गोत्रकर्म का सम्बन्ध भावों से है। (ख) 'दर्शन' शब्द का प्रायः सभी आचार्यों ने 'सामान्यज्ञान' अर्थ किया है, परन्तु दर्शनावरणीय कर्म में आये 'दर्शन' शब्द का अर्थ स्वसंवेदन होता है। श्री वीरसेनाचार्य ने 'दर्शन' को अन्तर्मुख चैतन्य एवं ज्ञान को बहिर्मुख चित्तप्रकाशक कहा है। (ग) वर्तमान में बहुत से विद्वान् करुणा, दया आदि भावों को जीत का विभाव मानते हैं परन्तु श्री वीरसेनाचार्य ने करुणा को जीव का स्वभाव कहा है। (घ)'शुभयोग से कर्मबन्ध नहीं होता है वरन् कर्मक्षय होता है।' यह मान्यता जैनधर्म की मौलिक मान्यता है और प्राचीनकाल से परम्परा के रूप में अविच्छिन्न धारा से चली आ रही है। इसके अनेक प्रमाण ख्यातिप्राप्त दिगम्बर आचार्य श्री वीरसेनस्वामी रचित प्रसिद्ध 'धवला टीका' एवं 'जयधवला टीका' में देखे जा सकते हैं। जैनविद्या का यह संयुक्तांक 'वीरसेन विशेषांक' के रूप में प्रकाशित है। जिन विद्वान् लेखकों ने अपने महत्वपूर्ण लेखों से इस अंक के कलेवर-निर्माण में सहयोग प्रदान किया है उन सभी के हम आभारी हैं और भविष्य में भी इसी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करते हैं । संस्थान समिति, सहयोगी सम्पादक, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी कार्यकर्ताओं के प्रति भी आभारी हैं। मुद्रण हेतु जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि., जयपुर भी धन्यवादाह है। डॉ. कमलचन्द सोगाणी
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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