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________________ सम्पादकीय आचार्य वीरसेन बहुविध प्रतिभा के धनी थे। वे बहुश्रुतशीलता, सिद्धान्त-पारगामिता, ज्योतिर्विदत्व, गणितज्ञता, व्याकरणपटुता एवं न्यायनिपुणता आदि गुणों से विभूषित थे। वे राजस्थान के सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ के मोरी (मौर्य) राज धवलप्पदेव के कनिष्ठ पुत्र थे। डॉ. ज्योतिप्रसाद ने वीरसेनस्वामी का समय 710-750 ई. निर्धारित किया है। आचार्य वीरसेन पंचस्तूपान्वयी शाखा से सम्बन्धित थे। पंचस्तूपान्वयी शाखा मथुरा या इसके आस-पास के प्रदेश से सम्बन्धित थी। यदि उनका अवतरण नहीं होता तो स्याद्वादमुद्रित आगमज्ञान के रहस्य से कलिकाल आत्मार्थी वंचित रह जाते। वीरसेन स्वामी ने कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं लिखा। उन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम पाँचों खण्डों पर मुख्यतः प्राकृत भाषा में धवला टीका लिखी। इसी प्रकार कषायप्राभृत पर संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में टीका लिखी किन्तु वे इसमें बीस हजार श्लोकप्रमाण रचना कर स्वर्गवासी हो गये। षट्खण्डागम पर 'धवला टीका' जो अपने आप में एक स्वतंत्र, मौलिक ग्रन्थस्वरूप है, जैन वाङ्गमय की ही नहीं, अपितु भारतीय वाङ्गमय की एक अनूठी और अद्भुत मौलिक कृति है जिसमें आचार्य वीरसेन के अगाध-पाण्डित्य, विलक्षण प्रतिभा एवं विस्तृत बहुश्रुतज्ञता का आभास मिलता है। इन टीकाओं में सूक्ष्म गहराई, तार्किकता, निर्भीकता, प्रामाणिकता एवं वीतराग मार्ग के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव व्यक्त होता है। इन रचनाओं में ज्योतिष, गणित, बीजगणित एवं निमित्तज्ञान आदि का भी समावेश हुआ है। . आचार्य वीरसेन की धवला टीका बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण है जिसे इन्होंने प्राकृत और संस्कृत मिश्रित भाषा में मणि-प्रवाल शैली में गुम्फित किया है। एक व्यक्ति ने अपने जीवन में बानवे हजार श्लोकप्रमाण रचनाएं कीं, यह अपने आप में आश्चर्य का विषय है। 'धवला टीका' में निमित्त, ज्योतिष एवं न्यायशास्त्रीय सूक्ष्म तत्त्वों के सांस्कृतिक विवेचन के साथ ही तिर्यंच और मनुष्य के द्वारा सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम की प्राप्ति की विधि का विशद उल्लेख हुआ है। आचार्य वीरसेन ने स्वीकृत विषय को समझाने के लिए अपनी टीका में प्राध्यापन-शैली भी अपनाई है। जिस प्रकार शिक्षक छात्र को विषय का ज्ञान कराते समय बहुकोणीय तथ्यों और उदाहरणों या दृष्टान्तों का आश्रय लेता है तथा अपने अभिमत की सम्पुष्टि के लिए आप्तपुरुषों या शलाकापुरुषों के मतों को उद्धृत करता है, ठीक उसी प्रकार की शैली धवला टीका की है। कठिन शब्दों या वाक्यों के निर्वचन एक कुशल प्राध्यापक की शैली में निबद्ध किये गये हैं। इस शैली को आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'पाठक-शैली' कहा है। जिस प्रकार 'महाभारत' एक लाख श्लोकप्रमाण में निबद्ध हुआ है उसी प्रकार आचार्य वीरसेन ने लगभग उतने ही (बानवे हजार) श्लोकप्रमाण में अपनी टीकाओं का उपन्यास किया है। महाभारत के बारे में प्रसिद्ध है - 'यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्', अर्थात् जो
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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