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________________ जैनविद्या 14-15 55 मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान पाये जाते हैं।' मनुष्य नामकर्म के उदय से उत्पन्न जीवों को मनुष्य कहते हैं अथवा जो मन से निपुण, उत्कट अर्थात् दूरदर्शन, सक्षम विचार आदि से युक्त हैं, हेय-उपादेय और गुण-दोष आदि का विचार करने में सक्षम हैं उन्हें 'मनुष्य' कहते हैं और उनकी गति को 'मनुष्य गति'11° मनुष्यगति सभी चौदह गुणस्थानों का अन्वेषण स्थान है। जो अणिमा आदि आठ ऋद्धियों से युक्त हैं उन जीवों को 'देव' कहते हैं अथवा देव नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए जीवों को 'देव' कहते हैं और उनकी गति को 'देवगति' । देवगति मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंतसम्यग्दृष्टि, इन चार (1-4) गुणस्थानों का अन्वेषण स्थान है। यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि अणिमा आदि आठ ऋद्धियों से युक्त जीव देव है तब योगाभ्यास के द्वारा प्राप्त अणिमा आदि आठ ऋद्धियों से युक्त मनुष्य और देव में क्या अन्तर है ? दूसरे, मनुष्य पंचेन्द्रिय जीव है और देव भी पंचेन्द्रिय जीव है तब उन दोनों के इन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रियों की संरचना में क्या भेद है ? इस प्रश्न का समाधान एक अन्य प्रश्न के समाधान पर कि 'इन्द्रियों' का स्वरूप क्या है, अपेक्षित है। जो प्रत्यक्ष में व्यापार करती है उसे 'इन्द्रिय' कहते हैं अर्थात् जो नियमितरूप से अपने अर्थरूप विषय में व्यापार करती है अथवा ग्रहण करती है उसे 'इन्द्रिय' कहते हैं। 4 इन्द्रिय का एक अन्य लक्षण भी किया जा सकता है कि आत्मा की वह शक्ति विशेष जो संवेदनाओं को ग्रहण करती है 'इन्द्रिय' कहलाती है अर्थात् आत्मा की संवेदन-ग्राह्य-शक्ति 'इन्द्रिय' है। इन्द्रिय की संरचना के दो रूप हैं - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय कर्म के द्वारा निर्मित इन्द्रिय और उसके स्थूल रूप को 'द्रव्येन्द्रिय' कहते हैं तथा इन्द्रिय के आवरणरूप कर्मों के क्षय-उपशम और उसके फलस्वरूप होनेवाले चैतन्य परिणमन को 'भावेन्द्रिय' कहते हैं। इन्द्रिय के पाँच प्रकार हैं - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय। इन्द्रिय के इन पाँच प्रकारों, उनके निमित्त, विषय और धारक को एक तालिका के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है, जो निम्नलिखित रूप में है - इन्द्रिय इन्द्रिय का निमित्त इन्द्रिय का विषय इन्द्रिय के धारक जीव स्पर्शन स्पर्शन इन्द्रिय के एक इन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय जीव आवरण-कर्मों का जैसे - पृथ्वीकायिक जल-कायिक क्षय-उपशम शंख, कृमि, खटमल, नँ, मक्खी , मच्छर, हंस, कबूतर, गाय, भैंस, देव, मनुष्य, नारकी आदि। रसना रसना इन्द्रिय के दो इन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय जीव, आवरण-कर्मों का जैसे - शंख, कृमि, खटमल, नँ, क्षय-उपशम मक्खी, मच्छर, हंस, कबूतर, गाय, भैंस, देव, मनुष्य, नारकी, आदि। स्पर्श रस
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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