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________________ जैनविद्या 14-15 अनेक अर्थों को नये रूप में उद्घाटित करता चला गया। वीरसेनाचार्य का गणितीय न्याय कनाड़ी लिपि में, भाषा में अनुबद्ध होता हुआ, आज के न्यायशास्त्रियों, वादियों के लिए एक महान् स्रोतरूप में उपस्थित हुआ। किन्तु कन्नड़, कर्णाटक केशववर्णी आदिकृत अर्थसंदृष्टिमय वृत्तियाँ गणित-मय पठन-पाठन की वस्तु न बन पाईं और उनके गणितीय-न्याय अभिप्रेत परिप्रेक्ष्य अभी भी अप्रकाशित, अनुद्घाटित रहे आये। इस संक्षिप्त लेख में हम मात्र एक ही 'केवलज्ञान राशि' सम्बन्धी गणितीय-न्याय का संदृष्टिमय परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत कर सकेंगे। वीरसेनाचार्य द्वारा संख्येय, असंख्येय, अनन्त कर्म संबंधी राशियों के परिप्रेक्ष्य उपस्थित किये गये हैं जो हमने अपने विगत कुछ लेखों में प्रस्तुत किये हैं। __ प्रश्न है कि क्या किसी राशि को परिभाषित कर उसकी परिसीमाओं में अनन्तात्मक राशि को उद्बोधित किया जा सकता है ताकि वह सत्य, अस्तित्वमय एवं स्वबाधा से रहित हो? 'बरट्रेण्ड रसेल ने केंटर की राशि की परिभाषा लेकर जो तर्क छेड़ा और जिसने केन्टर के पचास वर्षों के प्रयास से बने राशि-सिद्धान्त को मानो क्षणमात्र में धराशायी कर दिया उसे हम एक दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं - 'किसी गांव में एक नाई रहता है। वह उन सभी की हजामत बनाता है जो अपनी हजामत स्वयं नहीं बनाते। प्रश्न है कि नाई की हजामत कौन बनाता है?' इसी तर्क को स्पष्ट करने के लिए हम संकेतों के द्वारा तर्क निर्मित कर सिद्ध करेंगे कि यह स्वबाधित है। कैण्टर ने जितने साध्य राशि-सिद्धान्त सम्बन्धी सिद्ध कर बतलाये थे वे तीन स्वयंसिद्धों (axioms) पर आधारित थे - १. राशियों हेतु विस्तारात्मक योग्यता का स्वयंसिद्ध - यह निश्चयपूर्वक बतलाता है कि कोई भी दो राशियाँ सर्व-सम होती हैं यदि उनमें वही सदस्य हों। 2. अमूर्त कल्पना का स्वयंसिद्ध (axioms of abstraction) – इसका कथन है कि किसी दिये हुए गुणधर्म (Property) के लिए एक ऐसी राशि का अस्तित्व रहता है जिसके सदस्य (members) ठीक वे ही वस्तुएं (entities) होती हैं जिनमें वही गुणधर्म होता है। 3. विकल्प संबंधी स्वयंसिद्ध (axiom of choice) - समतुल्य रूप में यह सुक्रमबद्धी साध्य (Well-ordering theorem) है जिसका कथन है कि प्रत्येक राशि-वर्ग इस प्रकार क्रमबद्ध किया जा सकता है कि उसका प्रत्येक अरिक्त उपराशिवर्ग का एक सदस्य प्रथम अवश्य होता है। इनमें से उलझन उत्पन्न करनेवाला स्वयंसिद्ध क्रमांक 2 है। 1901 में बर्टेण्ड रसेल ने पाया कि इस स्वयंसिद्ध द्वारा पूर्वापर विरोध (contradiction) निकाला जा सकता है । वह इस प्रकार कि उन सभी वस्तुओं की राशि पर विचार किया जाये जिनमें ऐसा गुणधर्म हो कि वे परस्पर में एक-दूसरे के सदस्य न हों। इसकी संदृष्टिमय रचना के लिए हमें राशि-सदस्यता संबंधी संदृष्टि '' जो युग्मक निरूपक है, लेना होता है। इस प्रकार सूत्र 'xey' का अर्थ 'x सदस्य है y का', 'y में x है', होता है। इस प्रकार यदि A प्रथम पांच अयुग्म धनात्मक पूर्णांकों की राशि हो, तो वाक्य '7EA' सत्य होता है और '6E A' असत्य होता है। आधुनिक न्याय संबंधी संकेत
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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