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________________ जैनविद्या 14-15 ___ आचार्य वीरसेन ने स्वीकृत विषय को समझाने के लिए अपनी टीका में प्राध्यापन-शैली भी अपनाई है। जिस प्रकार शिक्षक छात्र को विषय का ज्ञान कराते समय बहुकोणीय तथ्यों और उदाहरणों या दृष्टान्तों का आश्रय लेता है तथा अपने अभिमत की सम्पुष्टि के लिए आप्तपुरुषों या शलाकापुरुषों के मतों को उद्धृत करता है, ठीक उसी प्रकार की शैली धवला टीका की है। कठिन शब्दों या वाक्यों के निर्वचन एक कुशल प्राध्यापक की शैली में निबद्ध किये गये हैं। इस शैली को आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'पाठक-शैली' कहा है। जैसा पहले कहा जा चुका है, प्राचीन टीकाएँ स्वतन्त्र ग्रन्थकल्प की प्रतिष्ठा आयत्त करती हैं। आचार्य वीरसेन की 'धवला' एक टीका होने पर भी स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसलिए आचार्य वीरसेन भाष्यकार या विवृतिकार की तरह मूल ग्रन्थकार द्वारा निरूपित विषयों या उसकी विवेचना की पद्धतियों से अनुबन्धित नहीं हैं, वरन् इन्होंने स्वतन्त्र ग्रन्थकार की तरह विषय की अभिव्यंजना अपने ढंग से निश्चित शैली में प्रस्तुत की है, साथ ही ग्रन्थकार से भिन्न अभिनव और मौलिक तथ्यों की भी उपस्थापना की है। इस शैली में सर्जनात्मक प्रतिभा के समावेश के कारण ही आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ने इसे 'सर्जक शैली' कहा है। जिस प्रकार 'महाभारत' एक लाख श्लोकप्रमाण में निबद्ध हुआ है, उसीप्रकार आचार्य वीरसेन ने लगभग उतने ही (बानवे हजार) श्लोकप्रमाण में अपनी धवला का उपन्यास किया है। महाभारत के बारे में प्रसिद्धि है - 'यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्' अर्थात्, जो महाभारत में है वही अन्यत्र भी है, जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं है। इसीप्रकार जैन वाङ्मय के समस्त अनुयोग कालजयी टीका धवला में अन्तर्निहित हैं। सच पूछिए तो आचार्य वीरसेन जैनशास्त्र के व्यासदेव हैं। पी. एन. सिन्हा कॉलोनी भिखना पहाड़ी पटना-800006
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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