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________________ जैनविद्या 14-15 परिवर्तित कर लिया प्रतीत होता है। आचार्य इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार से विदित होता है कि वीरसेन स्वामी ने जिन एलाचार्य से सिद्धान्त का अध्ययन किया था वे चित्रकूटपुर के निवासी थे। कुछ विद्वानों ने चित्रकूटपुर की पहचान दक्षिण भारत के चित्तलदुर्ग नामक स्थान से और कुछ ने मध्य भारत के चित्रकूट (उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित चित्रकूट) से की है, किन्तु डॉ. ज्योतिप्रसादजी उसे राजस्थान का चित्तौड़ मानते हैं क्योंकि वह उस समय का एक प्रमुख जैन केन्द्र था और चित्रकूटपुर नाम से भी पुकारा जाता था। डॉ. जैन की मान्यता है कि स्वयं वीरसेन मूलतः चित्तौड़ के रहनेवाले थे जो बाद में प्रवासकर राष्ट्रकूट साम्राज्यान्तर्गत नासिक के समीपवर्ती वाटग्राम की प्राचीन काम्भार-लेण गुहाओं में बस गये थे। आठवीं शताब्दी के मध्य के लगभग एलाचार्य,सातवीं शताब्दी के अन्तिम पाद में चन्द्रसेन और आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आर्यनन्दि के विद्यमान होने का प्रमाण मिलता है।14 अतः वीरसेन स्वामी के एलाचार्य से सिद्धान्त का अध्ययन करने और उनके चन्द्रसेन का प्रशिष्य एवं आर्यनन्दि का शिष्य होने की बात पुष्ट होती है। __वीरसेन ने अपने ग्रन्थों में अपने पूर्ववर्ती अकलंकदेव (625-75 ई.) और धनञ्जय (लगभग 700 ई.) का उल्लेख किया है और उनकी कृतियों से सन्दर्भ दिये हैं। उनके शिष्य जिनसेन ने जयधवला प्रशस्ति में उनका गुणगान करते हुए यह भी अंकित किया है - पुस्तकानां चिरत्नानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकाशिष्यकाः ॥24॥ अर्थात् उन्होंने चिरन्तन काल की पुस्तकों में गुरुता प्राप्त की और इस कार्य में अतिशय प्राप्तकर वे अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक-पाठियों से आगे बढ़ गये। अतएव वीरसेन एक अच्छे पुस्तकसंग्रह के स्वामी रहे होंगे। पूर्ववर्ती आगम, साहित्य आदि के अच्छे ज्ञान और अपनी प्रतिभा द्वारा वीरसेन स्वामी ने आगम-सूत्रों को चमका दिया और पूर्ववर्ती अनेक टीकाओं को अस्तमित कर दिया। वह सिद्धभू पद्धति नामक गणितशास्त्रीय कृति के प्रणेता भी माने जाते हैं। स्व. पं. नाथूराम प्रेमी ने अपनी विद्वद्रत्नमाला नामक लेखमाला में वीरसेन स्वामी का जीवनकाल शक सं. 665 से 745 (ई.सन् 743 से 823) अनुमानित किया था। धवला की समाप्ति का समय शक सं.738 (ई. सन् 816) मानते हुए अन्य अनेक विद्वानों ने भी उन्हें राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (815-76 ई.) का समकालीन माना है, किन्तु डॉ. ज्योतिप्रसादजी ने वीरसेन स्वामी, जिनका जीवनकाल 80 वर्ष था, का समय 710-790 ईस्वी निर्धारित किया है,15 जो अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर युक्तियुक्त प्रतीत होता है। 1. हरिवंशपुराण (समय 783 ई.), आचार्य जिनसेनसूरि पुनाट, 1.39। 2. अष्टसहस्री (समय 792 ई.), पुष्पिका, आचार्य विद्यानन्दि । 3. आचार्य जिनसेन (समय लगभग 770-850 ई.) कृत आदिपुराण, प्रथम पर्व, श्लोक 55-58। ऊपर उद्धृत पाठ पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित और भारतीय ज्ञानपीठ, काशी द्वारा सन् 1963 ई. में प्रकाशित 'आदिपुराण' में पृष्ठ 11 पर मुद्रित
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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