SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 14-15 एवं जटिलता को सहज ग्राह्य बनाया। उन्होंने दो-तीन शब्दों के सूत्रों की लम्बी-लम्बी व्याख्याएं कर उनके गर्भित अर्थ को प्रकट किया। 'सकने या होने' जैसे विशेषण लगाकर यदा तदा निरूपण नहीं किया । यही विशेषता वीरसेन स्वामी को प्रमाणिकता के शिखर पर ले जाती है उनके द्वारा निरूपित कतिपय शब्दों की व्याख्या से इस तथ्य की पुष्टि सहज ही हो जाती है। 7 (i) मोहनीय सबसे प्रबल शत्रु मोहनीय कर्म सर्व कर्मों में सबसे घातक एवं प्रभावी शत्रु है, इस तथ्य की सिद्धि आचार्य वीरसेन ने पंच नमस्कार मंत्र के प्रथम पद अर्थात् ' णमो अरिहंताणम्' की व्याख्या करते हुए की। उन्होंने कहा कि ‘अरिहननादरिहन्ता', अरि अर्थात् शत्रुओं के हननात् अर्थात् नाश करने से 'अरिहंत' होते हैं। नरक, तिर्यंच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होने वाले समस्त दुखों की प्राप्तिका निमित्त कारण होने से 'मोह' को अरि अर्थात् 'शत्रु' कहा है। मोह कर्म ही शत्रु क्यों है? यह शंका और प्रतिशंकाएं उठाकर आचार्य वीरसेन ने युक्तिसंगत समाधान दिये जो मननीय हैं। एक शंका समाधान इस प्रकार है : - शंका - केवल मोह को ही अरि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार निष्फल हो जाता है। समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, बाकी के समस्त कर्म मोह के आधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं जिससे कि वे भी अपने कार्य में स्वतंत्र समझे जायें। इसलिये सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके आधीन हैं। (धवला 1.1.1, पृष्ठ 43-44 ) (ii) कषाय का व्यापक अर्थ सामान्यरूप से क्रोध, मान, माया और लोभ आदि के मनोभावों को कषाय कहते हैं। शब्दार्थ में- जो कसे वह कषाय है। किन्तु आचार्य वीरसेन ने कषाय की व्याख्या व्यापक अर्थ में की । उनके अनुसार 'सुख-दुख बहुसस्य कर्मक्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः' अर्थात् सुख, दुख रूपी नानाप्रकार के धान्य को उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्र को जो कर्षण करती है, अर्थात्, फल उत्पन्न करने के योग्य करती हैं, उन्हें कषाय कहते हैं। यहां पर आचार्य वीरसेन ने स्वयं शंका उठाई कि जो कसें उन्हें कषाय क्यों नहीं कहते, जो इस प्रकार है - शंका- यहां पर कषाय शब्द की, 'कषन्तीति कषायाः' अर्थात् जो कसें उन्हें कषाय कहते हैं, इस प्रकार की व्युत्पत्ति क्यों नहीं की ? समाधान - नहीं, क्योंकि, 'जो कसें उन्हें कषाय कहते हैं', कषाय शब्द की इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर कसनेवाले किसी भी पदार्थ को कषाय माना जायेगा । अतः कषायों के स्वरूप समझने में संशय उत्पन्न हो सकता है, इसलिये जो कसें उन्हें कषाय कहते हैं, इस प्रकार व्युत्पत्ति नहीं की गई ।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy